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जयोदय- महाकाव्यम्
[ ६३-६५
यद् रम्यं मम वक्त्रविधानमाहृता सरोजात्सुषमा न । इति किल वारिणि निममज्ज मुहुः शपनायेशान्तिकं जितकुहूः ॥ ६३ ॥
टीका-जिता कुहूः कोकिलस्य शब्दो यया सा नारी, ईशस्यान्तिकं स्वामिनः समीपम् । हे नाथ ! मया सरोजारकमला त्सुषमा शोभान हृता, किन्तु मम वक्त्रस्य विधानं तत्स्वयमेव रम्यमस्तीति किल शपनाय स्पष्टीकरणाय मूहुर्वारंवारं वारिणि निममज्ज । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६३॥
निमज्जिताथा जले जवेन नेत्रानुमितं मुखं सुखेन । रोलम्बकुलेन ॥ ६४॥
सम्पतता
तदङ्गरागगन्धलुब्धेन
टीका - जवेनानभिज्ञातरूपेण जले निमज्जिताया निमग्नाया वल्लभाया मुखं तस्या अङ्ग यो रागश्चन्दनाविकृतो लेपस्तस्य गन्धे लुब्धेनानुरागयुक्तेनातस्तत्र सम्पतता समागत्य पर्यटता रोलम्बानां भ्रमराणां कुलेन समूहेन हेतुना सुखेनानायासेनैव नेत्रा स्वामिनानुमितं ज्ञातमित्यनुमितिरलंकारः । ' रोलम्बः षट् पढो भृङ्गश्चञ्चरीकोऽलिरित्यपि ' इति कोश: ॥ ६४ ॥
जनैः ।
सुगुरुश्रोणिजुषः शनैः शनैर्जले प्लवन्त्यास्तकित
उरोजयुगलं
तत्सहकारि सहजालाबुफलप्रतिहारि ॥ ६५ ॥ टीका - सुगुरुश्रोणि जुषोऽत्यन्तं गुरुं श्रोणिभरं वधत्या अपि शनैः शनैरपरिश्रमेण
अर्थ — कोयलकी कूकको जीतने वाली कोई स्त्री पतिके समीप पानी में बार-बार डुबकी लगा रही थी मानों वह यह स्पष्ट करनेके लिये कि हे नाथ ! मैंने कमलसे उसकी शोभाको नहीं चुराया है मेरे मुखका जो विधान है वह स्वयं स्वतः ही रमणीय है ।
भावार्थ- मेरे मुखकी सुन्दरता देख आप मुझपर यह आरोप न लगावें कि मैंने यह कमलसे छीन ली है । मेरी मुखकी शोभा स्वाभाविक है कृत्रिम नहीं । इसीलिये तो पानी में बार-बार डूबनेपर भी वह ज्यों की त्यों बनी हुई है । उत्प्रेक्षालंकार है ||६३||
अर्थ - किसी स्त्रीने बेगसे - पतिको जताये बिना ही पानीमें डुबकी लगा ली । उसके अङ्गरागकी सुगन्धके लोभी भ्रमरोंका समूह वहाँ मँडराने लगा । उस भ्रमर समूहसे पतिको अनायास ही अनुमान हो गया कि यह डूबी है । अनुमिति अलंकार है ||६४||
अर्थ — कोई एक स्त्री स्थूल नितम्ब वाली होकर भी पानीमें धीरे-धीरे
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