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६१-६२]
चतुर्दश सर्गः टीका-इह जलकेल्यवसरे नते ध्रुवौ यस्यास्तस्याः सुलोचनाया मनोभुवा कामदेवेन पाण्डुनि स्वच्छाकारे कपोलके गण्डमण्डलेऽतएव प्रतिबिम्बिताः अलकाः रशा यत्र तस्मिन् स्फुरता मगुरोवला (रा) मा पत्राणामुदारा स्पष्टा या शङ्का तया हेतुभूतया वयस्यया सख्या तन्मृष्टं परिमार्जितुमारब्धम् । सन्देहोऽलंकारः ॥६॥
सुतनोर्मकरन्दातिशयेन स्माश्रितालिगुज्जनमिति तेन । श्रितसंसर्गसुखं वियोगसात्पूतकुरुते श्रवणोत्पलं रसात् ॥६१॥ टीका-सुतनोवत्याः श्रवणोत्पलं कर्णगतकमलं यत्किलश्रितसंसर्गसुखं येन तस्याः संसर्गस्य सुखं लब्धं तवना वियोगसाद विरहमनुभवत्सत् रसाद्विगत् सुखानुभवनात् किल तेन स्वप्रसिद्धेन मकरन्दातिशयेन सुगन्धबाहुल्येन धितं समालब्धमलिगुञ्जनं भ्रमराणां रोदनं येन तविति पूत्कुरुते स्म । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६१॥
भूषणभङ्गभयादिवाधुनाऽम्भो निर्ममे स्त्रियां तु साधुना। फेनसंचयेनोरसि हारं शैवलैः कपोले दलसारम् ॥६२।। टोका-अम्भो नद्या जलं तवधुना स्त्रियां नारीणां भूषणानां किलालंकाराणां यो भङ्गस्तस्मायाविव तु पुनस्तासामुरसि साधुनाऽभ्युचितेन फेनसंचयेन तु हारं मुक्तादाम तथा कपोले गण्डमण्डले शेवर्लेर्जलमलेर्दलानां पत्राणां सारं समुचितांशं निर्ममे चकारेत्युत्प्रेक्षा ॥२॥
अर्थ-नतभौंहोंवाली अर्थात् नीचेकी ओर देखनेवाली किसी स्त्रीके कपोलगाल काम व्यथासे पाण्डुवर्ण-स्वच्छ हो गये और उनमें उसीके केशोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। सामने खड़ी उसकी सहेलीने समझा कि यह इसके कपोलोंपर अगुरुपत्र-अगुरुचन्दनसे निर्मित काली काली पत्र रचना है अतः उसने उसे धोना शुरू कर दिया । यह संदेहालंकार है ।।६०॥
अर्थ--किसी स्त्रीके कान पर जो नील कमल लगा हुआ था उसके ऊपर मकरन्द की तीव्र सुगन्धके कारण भ्रमर गुंजार कर रहे थे । इससे ऐसा जान पड़ता था कि जिसने स्त्रीके संसर्ग से सुखका अनुभव किया था ऐसा वह नील कमल अब जल क्रीड़ाके समय कानसे जुदा होनेका प्रसङ्ग पाकर दुःखसे मानों रो ही रहा हो । यह उत्प्रेक्षालंकार है ।।६१॥
अर्थ--नदीके जलको इस बातका भय लगा कि हमारे द्वारा स्त्रियोंके आभूषण नष्ट हो गये हैं इस भयसे ही मानों उसने संचित फेनसे वक्षःस्थलपर मोतियोंका हार बना दिया और कपोलों पर शैवालके द्वारा श्रेष्ठ पत्र रचना कर दी ॥२॥
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