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________________ ६९२ जयोदय-महाकाव्यम् [५८-६० न्यस्य मृदुपदं पुराभिगाधं कामिचित्तवद् वारि अगाधम् । रागिभिरमग्नुरज्जयति स्म चान्तराविष्टतया युवतिः ।।५८॥ टोका-युवतिर्वारि नद्या जलं कामिनश्चित्तमिव कामिचित्तवत् पुरा प्रथमं तु अभि. गाणं यावदवगाहनीयं तावन्मदु पवं न्यस्य प्रीतिजनक कोमलवचनमुक्त्वा ततः पुनरगावमतलस्पर्शमपि तदन्तराविष्टतयाऽभ्यन्तःप्रवेशेन रागिभिरङ्ग विकादियुक्तचरणादिभिः प्रेमवद्ध फैश्चापानादिभिरनुरब्जयति स्मानुरजयामास । समासोक्तिरलंकारः ॥५८॥ आत्तमात्तमप्यजली जलमधीरनेत्रा सिञ्चितुं बलम्(रम्)। निजनेत्रप्रतिबिम्बसंश्रयाज्जहावहो सविसारशकूया ॥५९॥ टीका-अधीरे चपले नेत्र नयने यस्यास्सा युवतिवरं स्वभरि सिञ्चितुस्नपयितुमजली जलमात्तमात्तं मुहुर्मुहुर्महोलापि निजनेत्रयोः प्रतिबिम्बे प्रतिमे तयोः संश्रयात् समायावेतोविसाराभ्यां मोनाभ्यां सहितं सविसारं तस्य शङ्कया जही त्यजति स्माहोआश्चर्यकरमेतत् । भ्रान्तिमानलंकारः ॥५९॥... मनोभुवा पाण्डुनि कपोलके नतभ्रवः प्रतिबिधितालके । स्फुरदगुरुदरो (लो) वारशङ्कया मृष्टमिहारब्धं वयस्यया ॥६०॥ अर्थ-किसी युवतिने पहले, कामी मनुष्यके चित्तके समान प्रवेश करनेके योग्य (कम गहरे) जलमें कोमल पैर रक्खा पश्चात् अतलस्पर्शी गहरे पानीमें भीतर प्रविष्ट होकर माहुर आदिकी लालिमासे युक्त अङ्गोंके द्वारा उस जलको अनुरञ्जित-लाल लाल कर दिया। यहाँ समासोक्तिसे यह अर्थ ध्वनित है कि जिस प्रकार कोई स्त्री पहले मृदुपद-कोमल वचन कहकर पतिके हृदयको टटोलती है- उसके अनुरागका अंदाज लगाती है । पश्चात् धीरे-धीरे उसके अन्तर-हृदयमें प्रवेशकर अपने राग वर्धक अङ्गोंके द्वारा उसे अनुरक्त कर लेती है-प्रेमपाशमें बद्ध कर लेती है उसी तरह यहाँ युवतिने पहले उथले-कम व गहरे पानीमें अपने कोमल पैर रक्खे पश्चात् गहरे पानीमें प्रविष्ट हुई और अपने हस्तपाद आदि अङ्गोंसे उसे अनुरक्त कर दिया-लाल कर दिया ॥५८॥ ___ अर्थ-कोई चञ्चलाक्षी पतिको नहलानेके लिये अञ्जलिमें बार बार पानी लेतो थी परन्तु उसमें अपने ही नेत्रोंका प्रतिबिम्ब पड़नेसे उसे मछलियोंकी शङ्का हो जाती थी। इसलिये वह पानीको यूं ही छोड़ देती थी। यह भ्रान्तिमान अलंकार है ।।५९।। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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