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________________ ६९० जयोदय-महाकाव्यम् [ ५१-५५ टोका-हे सुकेशि सुन्दरकेशवति, पकेजातमिदं कमलं तव मुखेन जितं पराभूतं सत् तेन कारणेन साम्प्रतमसुखेन खेदेन मिलिन्दानां भ्रमराणामावलेश्छलेन मूग्नि स्वशिरसि कृपाणपुत्रों छुरिकां क्षिपविव किल। किञ्च, हे शस्यवाक् मजुभाषिणि पश्येदं मीनानां मण्डलं तव नयनयोः सौन्दर्येण जितमस्तीति कारणेन लिया लज्जयेव किल विमले गङ्गाया जले विलीयते गुप्तो भवति तु तावत् । तथा हे सुलोचने नवस्य जातिरियं तु त्वमिव विभाति । यत इयमविकलमनल्पं कुशं जलं लाति स्वीकरोति, त्वं चाविकलकुशला बुद्धिमती। इयं तु कमलानि पङ्कजान्यनुसरति त्वं च कमलां लक्ष्मीमनुसरतीति कमलानुसारिणी। यदस्या मध्यं सरसतां सजलतां सजलता सौन्दर्यसहिततां चाश्चत् स्वीकुर्वत् । ललितावतं सुन्दरपरिभ्रमणयुक्तं गम्भीरं च । किन्च, अभिभवो न भवति यस्या इत्युचिता सम्पत्तिः पक्षे नाभी तुण्डिकायां भवतीति नामिभवा है । हे सुनयने ! यह नदीकी जाति और तुम एक समान हो। क्योंकि जिस प्रकार नदीका मध्यभाग सेरसता-सजलताको प्राप्त है उसी प्रकार तुम्हारा मध्यभाग भी सरसता-स्नेह अथवा शृङ्गारसे सहितताको प्राप्त है। जिस प्रकार नदीका मध्य भाग ललितावेत-सुन्दर भँवरोंसे सहित है उसी तरह तुम्हारा मध्यभाग भी ललितावर्त-सामुद्रिक शास्त्रमें प्रतिपादित सुन्दर रोमचिह्नोंसे सहित है। जिस प्रकार नदीका मध्य भाग गंभीर-गहरा है उसी प्रकार तुम्हारा मध्यभाग भी (नाभिकी अपेक्षा) गभीर-गहरा है। जिस प्रकार नदीका मध्यभाग नाभिभवोचित सम्पत्ति-आदरके योग्य उचित शोभासे हमारे चित्तको अत्यन्त आकर्षित कर रहा है उसी प्रकार तुम्हारा मध्यभाग भी नाभिभवोचित सम्पति-नाभिसम्बन्धी सौन्दर्य सम्पत्तिसे हमारे चित्तको अत्यन्त आकर्षित कर रहा है। जिस प्रकार नदी सुरोजहंस-- उत्तम राजहंस पक्षियोंके सद्भावसे सहित है उसी प्रकार तुम भी सुराजहंस-उत्तम राजाओंके सन्मानसे सहित हो । जिस प्रकार नदी कमलानुसारिणी-कमलोंसे सहित है उसी प्रकार तुम भी कमलानुसारिणी-लक्ष्मीका अनुसरण करने वाली १. 'रसः स्वादेऽपि तिक्तादौ शृङ्गारादी द्रवे विषे । पारदे धातुवीर्याम्बुरागे गन्धरसे तनौ' ॥ इति विश्व । २. 'आवर्तश्चिन्तने चाऽऽवर्तने वाप्यम्भसां भ्रमे' । इति विश्व० । ३. 'राजहंसस्तु कादम्बे कलहंसे नृपोत्तमे' इति विश्व०-'राजहंसास्तु ते चञ्चु चरणोहितः सिताः' इत्यमरः। ४ 'कमलं जलजे नीरे क्लोम्नि तोषे च भेषजे । कमलो मृगभेदे स्यात् कमला श्रोवर स्त्रियाम् । इति विश्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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