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________________ ૬૮૮ जयोदय-महाकाव्यम् [४८-४९ 'टीका-कान्ता स्त्रीजातिरपि सरितां नहीं समाप तुलनया तुल्यतया कलिता स्वीकृता सती। यतो रसेन शृङ्गारेण पक्षे जलेन प्रसन्नाह्लादकारिणी तथा तरणेन यूना स्वभा क्रान्ता संयुक्ता पक्षे तरुणा वृक्षनामपदार्थेन क्रान्तोभयोः पाश्वयोरलंकृता । मावलिभिस्तरङ्गमनोशं मध्यं यस्याः सा तथा वलिभिङ्गोभिर्मनोश मध्यं यस्यास्सा। तथा पायोजं कमलमेव मुखं तदिव वा मुखं यस्याः सा पायोजमुखी। तथा वयोभिर्जलपक्षिभियंता पयसा यौवनेन प्रतीतेति किल श्लेषालंकारः ॥४७॥ पाद्यमुत्तमं सफेनहासाऽऽतिथ्यहेतवेऽवात्सरिता सा । कोकोक्तिभिः कृतक्षेमकथा सत्तरङ्गहस्तप्रणतिपथा ॥४८॥ टीका-सा सरिता तेषामागतानामातिथ्यहेतवे सफेनहासा फेनरूपेण हासेन सहिता सती, कोकस्य चक्रवाकस्योक्तिभिः कृता क्षेमस्य कथा यया सा सती, सन्तो ये तरङ्गास्त एव हस्तास्तैः प्रणतेर्नम्रतायाः पन्था यस्यास्सा सती, किलोत्तमं पायं जलं पवप्रक्षालनायादात् ददौ । रूपकालंकारः ॥४८॥ विभिन्नशैवलदलच्छलेन मुदङ्कुरानपि क्षती तेन । लास्यं प्रचलन्तीभिरूमिभिः क्लुप्तवतीवामानि जन्मिभिः ॥४९॥ टीका-सा सरिता विभिन्नानां जलमलानां बलस्यच्छलेन तेन व्याजेन मुवकुरान् अर्थ-उस समय अपनी तुलनासे युक्त स्त्रीजाति, नदीको प्राप्त हुई क्योंकि जिस प्रकार स्त्रीजाति रसप्रसन्ना-शृङ्गार रससे आह्लाद करने वाली होती है उसी प्रकार नदी भी रसप्रसन्ना-जलसे आह्लाद उत्पन्न करने वाली थी। जिस प्रकार स्त्री तरुणाक्रान्ता-युवक पतिसे आक्रान्त होती है उसी प्रकार नदी भी तरुणाक्रान्ता-दोनों तटों पर खड़े वृक्षोंसे सहित थी। जिस प्रकार स्त्रीका मध्यभाग वलि-विशिष्ट रेखाओंसे मनोहर होता है उसी प्रकार नदीका मध्यभाग भी आवलि-तरङ्गोंसे मनोहर था और जिस प्रकार स्त्री पाथोजमुखी-कमलके समान मुखवाली होती है उसी प्रकार नदी भी पाथोजमुखी-कमलरूपी मुखसे सहित थी । यहाँ श्लेषालंकार है ||४७॥ - अर्थ-उन आगत नरनारियोंके अतिथिसत्कारके लिये जिसने फेनरूपो हास्यको धारण किया है, चकवोंकी उक्तियोंसे जिसने कुशल समाचार की प्रच्छना की है तथा विद्यमान तरङ्गरूपी हाथोंके द्वारा जिसने नमस्कार करने को पद्धति पूर्ण की है ऐसी उस नदीने उन्हें पाद प्रक्षालनके लिये उत्तम जल दिया ॥४८॥ अर्थ-जो नाना प्रकारके शैवालदलोंके छलसे हर्षके रोमाञ्च धारण कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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