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________________ ६८६ जयोदय-महाकाव्यम् [४२-४४ किसलयशकलोदितेन पनरागरुचि. करद्वयं च सम । रसेन मञ्जुलदृशः पवित्र-विद्रुमसम्पदोऽपि परमत्र ॥४२॥ टीका-मञ्जुलदृशः स्त्रियाः पनरागस्य तन्नामरत्नस्य रुचिरिव रुचिर्यस्य तत् करयोदयं युगलं तवत्र पुष्पावचयस्थाने किसलयानां सद्योजातपल्लवानां शकलानि खण्डानि तेभ्य उदितेन रसेन पवित्रस्य विट्ठमस्य प्रवालस्य या सम्पत् तस्या अपि परं सम स्थलं विगुणितरागरुचिमवभूदित्यर्थः ॥४२।।। वीर्घदर्शिता लम्धुमिवात उत्पले उपश्रुति स्म भातः । साम्प्रतं तुलयितुं नयनाभ्यां सन्निहिते खलु गभीरनाम्याः ॥४३॥ टीका-साम्प्रतं खलु गभीरागाधयुता नाभियंस्यास्तस्याः श्रुत्योः श्रवणयोरुप समीपं नयनाभ्यां तुलयितु खलु सन्निहिते उत्पले कमले ते अतो बीघदर्शितां नयनगता लब्धं सम्प्राप्तुमिवायाते भातः स्म शशुभाते । 'ईदूदेद्विाति' सूत्रणात्र प्रकृतिभावः। उत्प्रेक्षालंकारश्च ॥४३॥ दयितजनरुत्कलितं दाम-भरं दधानाः स्त्रियां ललाम । तवसहमानतयेव सदंसा अतिनतिमापुः स्फुरत्प्रशंसाः ॥४४॥ टीका-दयितजनैवल्लभैरुत्कलितं संक्षिप्तं वामभरं माल्यमण्डलं यल्ललाम वस्तुतो मनोहरं तं दधानाः स्त्रियां नारीणां सदंसा: समीचीनाः स्कन्धाः स्फुरति प्रकटीभवति प्रशंसा येषां ते तद्दामभरमसहमानतयेव किलातिनति पूपिक्षयापि किलाधिका विनतिमापुः स्वीचक्र रुत्प्रक्षालंकारः ॥४४॥ अर्थ-किसी सुनयना-स्त्रीके पद्मरागमणिके समान कान्तिवाले दोनों हाथ पल्लव खण्डोंसे उत्पन्न रस-रङ्गके द्वारा पवित्र मूगाकी शोभाके भी स्थान हो गये थे-उनकी लालिमा दूनी हो गयी थी ।।४२॥ अर्थ-गहरी नाभिवाली किसी स्त्रीके कानोंके समीप दीर्घदर्शिताको प्राप्त करनेके लिये जो नील कमल सुशोभित हो रहे थे वे अब इन नेत्रोंके साथ अपनी तुलना करनेके लिये ही मानों निकटस्थ हो गये थे अर्थात् कानोंसे कुछ खिसककर नेत्रोंके पास आ गये थे। यह उत्प्रेक्षालंकार है ॥४३।। अर्थ-पतिके द्वारा डाली हुई मालाओंके समूहको जो सचमुच ही अत्यन्त मनोहर था, धारण करने वाले स्त्रियोंके कन्धे अत्यधिक प्रशंसित हो रहे थे उस प्रशंसाको सहन नहीं कर सके इसीलिये अत्यन्त नीचे हो गये थे । सज्जन पुरुष अपनी प्रशंसा सुन नम्र हो ही जाते हैं ।।४४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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