________________
४०-४१] चतुर्दश सर्गः
६८५ टीका-सत्र तदा सज्जनतया समीचीनया जनतयाऽथवा सुजनभावेन संयुज्य संयोगमवाप्यापि पुनर्यावद् वियुक्तस्तद्रहितोऽभूत्तर्वृक्षस्तावदेवापि कौतुकिता पुष्पवत्ताऽथवा विनोवभावस्तु दूरमास्तां विपल्लवित्वं पल्लवरहितत्वं तथा विपत्तियुस्तत्वमपि किलाविरभूत् प्रकटतामाप यतस्तत्रापवित्वं पक्षिभिश्च रहितत्वं तथा पस्य पवनस्य विरवकाशस्तबहितत्वमर्थात्सर्वशून्यत्वमभूत् ततः सज्जनता कदापि न त्याज्या हितैषिणेति समासोक्तिरलंकारः ।।४०॥ प्रिप्रपरिमलितागुरुपरिणामौ कलभनिकुम्भविभाभिरामौ । कुसुमभरपतत्परागसातौ सुदृशः कुचौ गुरुतरौ जातौ ॥४१॥
टोका-सुवृशः सुलोचनायाः कुचो स्तनौ यो कलभस्य हस्तिशावकस्य निकुम्भस्य मस्तकस्य निभा प्रभेव निभा ययोस्तो तत एवाभिरामौ सुन्दरौ। किञ्च, प्रियेण भर्ना परिमलितो मुहुर्मवितोऽगुरुचन्दनस्य परिणामो विलेपनं यद्वा लघुभावो ययोस्तो। किन्तु कुसुमानां भरः पुष्पदाम योऽधुनावधारितस्तस्मात्पतन् समागच्छन् योऽसौ परागः पुष्परजस्तेन सा (शा) तो कल्याणरूपावतो गुरुतरी पूर्वापेक्षयाषिकोन्नती जाती ॥४१॥
अर्थ-उस वनमें वनक्रीडाके समय जो वृक्ष सज्जनता-समीचीन जनसमूहसे युक्त थे, कौतुकिता-नाना प्रकारके पुष्पों अथवा संगीत आदि विनोदोंसे सहित थे, विपल्लवित्व-रङ्ग विरङ्गै विशिष्ट पल्लवों-पत्तोंसे सहित थे तथा वायु और पक्षियोंके संचारसे सहित थे, वे ही वृक्ष अब वनक्रीडाके अनन्तर सज्जनता-समीचीन जनतासे रहित हो गये, उनका पुष्प समूह नष्ट हो गया, उनके नीचे होनेवाले नाना विनोद समाप्त हो गये, और पक्षियोंकी चहल कदम अथवा मन्द सुगन्ध वायुका संचार भी समाप्त हो गया ।
यहां समासोक्तिसे एक यह अर्थ अन्तनिहित है कि जो व्यक्ति सज्जनतासुजनभावसे सहित पश्चात् जब उसे छोड़ देता है तक उसके सब कौतुक-विनोद नष्ट हो जाते हैं, यह बात तो दूर है, विपत्तियोंके अंश भी उसे घेर लेते हैं यही नहीं वायुका संचार भी नष्ट हो जाता है लोग बाग उसके पास आना जाना छोड़ देते हैं जिससे उसे शून्यताका अनुभव करना पड़ता है अतः किसीको सुजनता नहीं छोड़ना चाहिये ॥४०॥
अर्थ-पतिके द्वारा बार-बार मर्दित होनेसे जिनपर लगा हुआ ॲगुरु चन्दन का लेप छूट गया था और इसी कारण जो अगुरु-लघु हो गये थे ऐसे किसी सुनयनाके करिशावक के मस्तक के समान सुन्दर स्तन, पुष्पमाला से पड़ती हुई परागसे आनन्ददायक तथा गुरुतर श्रेष्ठ अथवा पहलेकी अपेक्षा अधिक उन्नत हो गये थे ॥४१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org