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६८२ जयोदय-महाकाव्यम्
३२-३३-३४] बद्धमुष्टिवलितोचितवाहमुन्नमय्य कुचयुगलमुताह । क्लममिषेण निजमीप्सितमेषा प्राणपति प्रति तदा सुवेषा ॥३२॥
टोका-बद्धमुष्टी च वलिते कुटिलतामिते चोचिते बाहे भुजे यत्र तदुत कुचयोः स्तनयोयुगलं द्वयमुन्नमय्य तदेषा सुवेषा योषा क्लममिषेणालसताव्याजेन प्राणपति प्रति निजमोप्सितं स्वाभिलषितमाहाभिव्यक्तवती ॥
उच्चित्याधःस्थं कुसुमं तु परमबला यावत्संगन्तुम् । पदमदाशोकयष्टौ नामामूलं सा फुल्लरभिरामा ॥३३॥ टीका-काचिदबलाश्वःस्थं कुसुमन्तूचित्य परं कुसुमं संगन्तु यावदशोकयष्टौ पदमरात्तावत् सा पुनरामूलं पूर्णरूपेण नाम फुल्लरभिरामाभूदिति दिक् ॥३३॥ पुरा तु राजीवदशा दत्तामनुस्मरन् वरमालासत्ताम् । प्रत्युपक्रियामिवाभिमानी तन्निगले क्षिप्तवानिदानीम् ॥३४॥
टीका-तु पुनः कश्चिदभिमानी जनः पुरा विवाह-समये राजीवदृशा कमलचक्षुषा स्त्रिया दत्तां वरमालायाः सत्तामनुस्मरन्निह किलेदानी तस्याः प्रत्युपक्रियामिव तन्निगले मालां क्षिप्तवान् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥३४॥
अर्थ-उस समय उत्तमवेषको धारण करनेवाली किसी स्त्रीने, जिन पर बद्धमुष्टि तथा मुड़ी हुई दोनों कोमल भुजाएँ लग रही हैं ऐसे स्तन युगलको ऊपर उठाकर आलस्यके बहाने अपना अभिप्राय पतिसे प्रकट किया ॥ ३२ ॥ __ अर्थ-किसी स्त्रीने अशोक यष्टिके नीचे स्थित फूलोंको तोड़कर ऊपर लगे हुए फूलोंको तोडनेके लिये उस पर पैर रक्खा कि वह पुनः मूल-जड़ तक फूलों से रमणीय हो गई। - भावार्थ-'पादाघातादशोको विकसति च वकुलो योषितामास्यमयः' इस कवि समासके कारण स्त्रीके पैरका स्पर्श पाकर वह अशोकयष्टि पुनः नीचेसे लेकर ऊपर तक फूलोंसे युक्त हो गई ॥३३॥
अर्थ--किसी अभिमानो पुरुषने विवाहके समय कमललोचना स्त्रीके द्वारा दो हुई वरमालाकी सत्ता स्मरण करते हुएके समान प्रत्यर्पणकी भावनासे उसके गले में माला डाल दी। __भावार्थ-अभिमानी मनुष्य किसीके उपकारको विस्मृत नहीं करता। चूंकि स्त्रीने विवाहके समय पतिके गलेमें वरमाला डाली थी अतः इस समय उसका बदला चुकानेकी भावनासे पतिने भी उसके गलेमें माला डाल दी ॥३४॥
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