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३०-३१ ] चतुर्दश सर्गः
६८१ ____टोका-अथ कया नर्मवश्यया विनोदवशंगतया वयस्यया सख्या, आलेः प्रतिसख्या भाले ललाटे खलु श्रीतिलकं नाम पुष्पं कलितं धृतं, कीदृश्याः सख्याः ? आत्मनो रुचा शोभया जगत्तिलकाया विश्वशिरोमण्याः, अतस्तदन्वर्थभावमयात् सार्थकतामवाप तदा ॥२९॥ दत्तं दयितेनापि सुभागा श्रवणेऽशोकपुष्पमनुरागात् । प्रतोपपत्न्यास्तदेव किन्न समभूत्स्विदसीमशोजित ।।३०॥
टोका-दयितेनापि प्रियेणापि अनुरागात्प्रेमवशात् सुभगाया भागशालिन्याः श्रवणे कर्णे दत्तं स्थापित यदशोकपुष्पं तदेव प्रतीपपत्न्याः सपत्न्याः स्विदिति प्रत्युतासीमशोकस्यापूर्वस्या पश्चात्तापस्य चिह्न किन्न समभूदेवेति वक्रोक्तिरलकारः ॥३०॥
लग्नाङ्गेषु च शुशुभे तेषां तावत्पुष्पप्रकरादेशाः । जगज्जिगोषोः स्मरस्य बाणोदिता लक्षवलना न तदा नो ॥३१॥ टीका-तदा तेषां जनानामङ्गेषु तावत् पर्याप्तमात्रायां पुष्पाणां प्रकरः समूह एवादेशः संनिर्देशो यस्याः सा जगज्जिगीषोः स्मरस्य बाणोदिता लक्ष्यवलना शरव्यपरम्परा न शुशुभे इति नो किन्तु शुशुभ एव ॥
अर्थ-किसो विनोदप्रिय सखीने दूसरी सखोके ललाट पर श्रीतिलक नामका फूल रख दिया । वह मखी अपनी कान्तिके द्वारा जगत्की तिलक थी शिरोमणि स्वरूप थी अतः वह श्रीतिलक नामका फूल अपने नामकी सार्थकताको प्राप्त हो गया अर्थात् भाल पर रखे जानेके कारण सचमुच ही तिलक हो गया ॥ २९ ॥ ___ अर्थ-किसी पतिने प्रेम वश सौभाग्यशालिनी प्रियाके कान पर अशोकका फूल लगा दिया परन्तु वही फूल सपत्नी सौतके असीम शोकका चिह्न क्या नहीं हो गया था ? वक्रोक्ति अलंकार है ।। ३० ॥
अर्थ-उस समय नर नारियोंके शरीर पर, पर्याप्त मात्रामें पुष्प समूह ही जिसमें आदेश रूप था ऐसी जगत्को जीतनेके इच्छुक कामदेवके बाणोंकी लक्ष्य परम्परा अवश्य ही सुशोभित हो रही थी। तात्पर्य यह है कि पुष्प समूह से सुशोभित नर नारी ऐसे जान पड़ते थे मानों जगद्विजयी कामदेवने उन्हें अपने बाणोंका निशाना ही बना रक्खा हो ॥३१॥
१. यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानावधारणे' इत्यमरः ।
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