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१६-१७] चतुदंश सर्गः
६७५ जहार । यतः स परिस्फुरत् सुविवासमधिगच्छद् यन्नेत्र मूलं तेनाङ्कितो युक्तोऽजन नामवृक्षो यत्र सः। पक्षे परिस्फुरती ये नेत्र चक्षुषी तयोरङ्कितमाफलितमञ्जनं येन स दारजनस्तथा। ललिता मनोहरा याऽमलकानां धात्रीवृक्षाणामावलि पक्षे ललितां सुन्दराकाराम् अलकानां केशानामावलि पंक्ति दधानः । तथा सालानां सर्जवृक्षाणां संगम संपर्क पक्षेऽलसभावेन सहितं सालसं गर्म गमनं दधान इति श्लेषोपमा ॥१॥ परिफुल्लवदनमापुः सम्यक् मृदुलताभिरामतया गम्यम् । मदनमनोहरं च गुणवत्यो नववयोऽन्वयं वनं युवत्यः ॥१६॥ ____टोका-गुणवत्यो युवत्योऽपि तदनं सम्यक् कान्तमिवेत्यर्थः। आपुः प्रापुः । परितोऽभितः फुल्लानि पुष्पाणि वदने मुखस्थाने यस्य तत्, पक्षे सदैव प्रसन्नाननं । तथा मृदुभिलताभिर्याऽभिरामता सुन्दरता तया गम्यं समनुभाव्यं, पक्षे मृदुलतायाः कोमलताया
में अञ्जन-काजल धारण करती है उसी प्रकार वनका विस्तार भी परिस्फुरन्ने'त्राङ्किताञ्जन--सब ओर फैली हुई जड़ोंसे युक्त अञ्जन नामक वृक्षोंको धारण कर रहा था। जिस प्रकार स्त्री ललिताम् अलकालिं-सुन्दर केशावलीको धारण करती है उसी प्रकार वनका विस्तार भी ललितामलकालिसुन्दर धात्री वृक्षोंकी पंक्तिको धारण कर रहा था और जिस प्रकार स्त्री सालसं गम-आलस्य सहित गमनको धारण करती है उसी प्रकार वनका विस्तार भी सालसंगम-सागौन वृक्षोंके संगम-समागमको धारण कर रहा था । यह श्लेषोपमा अलंकार है ।।१५।। __ अर्थ-गुणवती-सौन्दर्यादि गुणोंसे युक्त युवतियाँ अपने पतिकी समानता रखने वाले उस वनको अच्छी तरह प्राप्त हुई थीं। तात्पर्य यह है कि वह वन, युवतियोंके लिये अपने पतिके समान जान पड़ता था, क्योंकि जिस प्रकार पति परिफुल्लवदन-सदैव प्रसन्न मुखवाला होता है उसी प्रकार वह वन भी परिफुल्लषदन-खिले हुए पुष्पोंसे युक्त अग्रभाग वाला था। जिस प्रकार पति मृदुलताभिरामतया गम्य-कोमलता और सुन्दरतासे सेवनीय होता है उसी
१. 'नेत्रं विलोचने वृक्षमूले वस्त्रे गुणे मथि' इति विश्वलोचनः । २. 'अञ्जनो दिक्करीन्द्रे स्यादञ्जनं तु रसाञ्जने । अक्षिकज्जलयोवीरे गिरिभेदेऽप्यथा
अने।' इति विश्वलोचनः । ३. 'अलकाश्चूर्णकुन्तलाः' इत्यमरः । ४. 'सालः सर्जतरुः स्मृतः'।
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