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१२९० जयोदय-महाकाव्यम्
[९८-१०२ जीवानां जीवनाधारस्तदक्षरयुगं प्रभो।
तवास्माकं मिथो भूयादनुलोमविलोमतः ।।९८॥ जीवनामित्यादि-स्पष्टमिदमपि ॥९८॥ विनमामि तु सन्मतिकमकामं घोमितकैर्महितं जगति तमाम् । गुणिनं ज्ञानानन्दमुदासं रुचां सुचारु पूर्तिकरं कौ ॥९९॥
विनमामीत्यादि-द्यामितकः देवैः इति अत्र सन्मतिविशेषेण ज्ञानानन्दमित्यमिधाय विद्यागुरवे नमस्कारः कृतो भवति, पादानामाद्याक्षरैः सूचितत्वात् ॥९९॥
जयतात् सुनिबन्धोऽयं पुष्यन् सन्निगलं चिरम् । राष्ट्रप्रवर्ततामिज्यां तन्वन्निधिमुधुरम् ॥१०॥ गणसेवी नृपो जातराष्ट्रानेहो वृषेषणाम् । वहन्निर्णयधीशाली ग्राम्यदोषातिगः क्षमः ॥१०१॥ स्थिरत्वं मनुजाश्चेतः श्रीमन्तोऽवन्तु सूक्तिमत् । चमत्कुर्याज्जगन्नेतुर्भुवनेषु वृषो निजः ॥१०२॥
अर्थ-हे प्रभो ! जो जीवोंका आधारभूत है, वह अक्षरयुगल (नमः) आपके और हमारे लिये परस्पर अनुलोम तथा विलोम दोनों रूपसे प्राप्त हो।
भावार्थ-हे प्रभो ! आपके लिये मेरा नमः-नमस्कार हो और मेरे लिये आपका मनः-करुणापूर्ण हृदय हो, अर्थात् मेरा उद्धार करनेको भावना आपमें प्रकट हो । 'अनुलोममें नमः, और विलोममें मनः' यह अक्षरयुगल है ॥९८॥ ___ अर्थ-जो सन्मति-समीचीन मतिसे सहित हैं, अकाम-कामसे रहित हैं, देवोंके द्वारा जगत्में अत्यन्त पूजित हैं, गुणवान् हैं, उदास-वीतराग हैं, मनोहर हैं और पृथिवीमें इच्छाओंकी पूर्ति करनेवाले हैं, उन ज्ञानानन्द-नामक विद्यागुरुको नमस्कार करता हूँ। यहाँ सन्मति शब्दसे ज्ञानानन्द-का ग्रहण हुआ है तथा प्रत्येक चरणके आदि अक्षरसे विद्यागुरु-शब्द प्रकट किया गया है ॥१९॥
अर्थ-सत्पुरुषोंको मनोरथके पुष्ट करता हुआ यह सुनिबन्ध-काव्य चिरकाल तक जयवन्त रहे । देश निर्वाधरूपसे अत्यधिक प्रतिष्ठाको विस्तृत करता हुआ विद्यमान रहे। राजा गणसेवी, देशसे स्नेह करनेवाला, धर्मकी इच्छाको धारण करनेवाला, बुद्धिसे सुशोभित, ग्राम्य दोषसे रहित और सामर्थ्यवन्त१. 'द्यावाभूमिविस्फुरितयशसम्' इति पाठान्तरम् ।
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