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९६-९७ ]
अष्टाविंशतितमः सर्गः
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गवामित्यादि -- यद्यपीह लोके सतां सभ्यानां अङ्कुराः कृपाकटाक्षा: पक्ष सन्तश्च तेऽङ्कुराश्चाभिनवोद्भिदः, गवां वाणीनां पक्षे घेनूनां आधारभूता भवन्ति तद्वृत्तिकात् तेषाम् किन्तु इमाः पुनः खलं दुर्जनं पक्षे पिण्याकं लब्ध्वा रससंक्षरणक्षमाः सरसा: पक्षे दुग्धदायिका भवन्ति ॥ ९५ ॥
विरजा:
प्रभुरज्ञानध्वान्तभित्परमारवः । परमारक्षतान्मोहनिद्रालुं स प्रजां रविः ॥९६॥ विरजा इत्यादि - स्पस्टमिदम् । (शिबिकाबन्धः ) ||९६ ||
राजते योगदक्षो यः सामायिक निलिम्पितः । सृजत्वयोक्तिदः प्रायः स मां पाकं कलिस्थितम् ॥९७॥
राजत इत्यादि - य: सामायिकेन निलिम्पितः समभावतन्मयः योगे दक्षः स प्रायः अयोक्तिदः सन्मार्गदायको भूत्वा मां कलिस्थितं अस्मिन् दुष्काले तिष्ठन्तमपि पाकं पवित्रं सृजतु करोतु गुरुजनः । अयमपि चित्रबन्धः ॥९७॥
अर्थ - यद्यपि इस लोक में सदङ्कुराः - सज्जनोंके कृपाकटाक्ष ( पक्ष में प्रशस्त घास के अंकुर ) गवां - वाणीके (पक्ष में गायों के) आधारभूत हैं, तथापि ये गोरूप वाणी ( पक्ष में गायें) खल- दुर्जन ( पक्ष में) खलीको पाकर रससंरक्षणक्षमाःसोत्पादन में समर्थ (पक्ष में दूध देने वाली ) होती हैं ।
भावार्थ - घासके अंकुर गायोंके आधार अवश्य हैं, क्योंकि उन्हें खाकर वे जीवित रहती हैं, परन्तु खलीके खानेसे अधिक दूध देती हैं । इसी प्रकार सज्जनोंकी कृपासे कविगण काव्यकी रचना करते हैं, क्योंकि उनकी प्रेरणा से ही कविकाव्य रचना में प्रवृत्त होते हैं, परन्तु खल- दुर्जन मनुष्य दोष प्रदर्शित कर उस रचनाको निर्दोष कर देते हैं, अतः सरसता उन्हींसे प्राप्त होती है ॥ ९५ ॥
अर्थ - जो विरजाः - कर्मधूलिसे रहित हैं, प्रभु - शत इन्द्रोंको नम्रीभूत करने वाले प्रभावसे सहित हैं, अज्ञानध्वान्तभिद्-अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले हैं और परमारवः - उत्कृष्ट लक्ष्मो और दिव्य ध्वनिसे युक्त हैं, वे जिनेन्द्ररूपी सूर्यं मोहनिद्रा में निमग्न प्रजाकी अत्यन्त रक्षा करें ||१६||
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अर्थ - जो योग-ध्यानमें दक्ष - समर्थ अथवा निपुण हैं, समताभावसे तन्मय और प्रायः सन्मार्गको देते हुए उपदेश करते हुए सुशोभित हैं, वे गुरुजन दुष्कालमें स्थित मुझे पवित्र करें ।। ९७||
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