SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ९३-९५ अपरातिपरत्वतः सुवर्ण बहु सन्तापय भो सुवर्णकार ! । अमुकस्य गुणोऽतिरिच्यतेऽसमात्तव तुण्डे खलु भस्मसन्निपातः ॥९३॥ अपरेत्यादि-सुवर्णस्य विद्वज्जनस्य कारागार इव कष्टदायको यः स सुवर्णकारः दुर्जनः पश्यतोहरश्च तस्य सम्बोधनम् । सुवर्ण च विद्वज्जनं हेम वा । शेषं स्पष्टम् ॥९३॥ आशिकाधारभूतेभ्यः शालिवृत्तेभ्य उत्तमम् । कथमप्यैमि गुर्वीकः शस्यसम्पत्करं खलम् ॥९४॥ आशिकेत्यादि-अहं गुर्वोकः गुरूणां सेवकः धराजीविकश्च आशिकाधारभूतेभ्यः आशीर्वाददायकेभ्यः पक्षे आशामात्रस्याधारेभ्यः, शालि प्रशंसनीयं वृत्त चरितं येषां तेभ्यः, यद्वा शालिधान्यस्य वृत्त वार्तामात्रमेव येषु तेभ्यः क्षेत्रेभ्यः शस्या प्रशंसनीया या सम्पत् तां करोतीति शस्यसम्पत्करं यत् किञ्चिद् दुर्गुणापहारकत्वेन निर्दोषाधायकं पक्षे शस्यस्य धान्यस्य सम्पत्करं तं खलं दुर्जनं पक्षे धान्यसंग्रहस्थानं कथमप्युत्तमं प्रशस्ततमं ऐमि जानामि ॥९४॥ गवामाधारभूतास्ते यद्यपीह सदकुराः । खलं लब्ध्वा भवन्तीमा रससंक्षरणक्षमाः ॥९५॥ अर्थ-हे सुवर्णकार ! विद्वज्जनोंको कारावासके समान दुःख देनेवाले हे दुर्जन अथवा स्वर्णकार ! दूसरोंको कष्ट देने में तत्पर होनेके कारण तुम सुवर्णविद्वज्जन अथवा स्वर्णको अत्यधिक संतापित करो अवश्य, परन्तु इससे उसका गुण ही विशेष रूपसे प्रकट होगा, तुम्हारे मुखपर केवल भस्मका पतन होगा, तुम्हें केवल दोषकथन करनेसे अपकीर्ति उठाना पड़ेगी-पक्षमें आगको फूंकनेसे भस्म मुखपर पड़ेगी ॥१३॥ अर्थ-मैं गुर्वोक-गुरुओंका सेवक अथवा पृथिवीसे आजीविका करनेवाला जमींदार, आशिकाधारभूत-आशीर्वाद देने वाले (पक्षमें आशाके आधारभूत) शालिवृत्त-प्रशंसनीय चरित वाले (पक्षमें धान्य-अनाजकी वार्तासे युक्त) सज्जनों (पक्षमें खेतों) से खल-दुर्जन (पक्षमें धान्य संग्रह करनेके स्थान-खलिहान) को किसी तरह शस्यसम्पत्करं-प्रशंसनीय सम्पत्तिको करनेवाला (पक्षमें धान्यरूप संपत्तिको करनेवाला) अत एव उत्तम जानता हूँ-मानता हूँ, अर्थात् जिस प्रकार खेतोंकी अपेक्षा धान्यका संग्रह करनेसे खलिहान उत्तम है, उसी प्रकार प्रशंसा करनेवाले सज्जनोंसे दुर्जन अच्छा है, क्योंकि वह दोषोंकी आलोचनाकर काव्यको निर्दोष बना देता है और खलिहान भी भूसासे धान्यको अलग कर देता है ॥९४॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy