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________________ ९१-९२] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२८७ गुणविगुणविदं तु स्त्रागपि ख्यापयन्तु विशदिमविशदंशा पेयताङ्केत्र हंसाः । अशुचिपदकतुष्टा आत्मघोषाः सुदुष्टाः किमिव नहि वराकाः काकुमायान्तु काकाः॥९॥ गुणेत्यादि-विशदिम्नि स्वच्छतायां विशन्तः अंशाः स्वभावा येषां ते हंसा बुद्धिमन्तो मरालाश्च ते पेयताङ्क आस्वादनीये काव्ये त्रागपि शीघ्रमेव गुणश्च विगुणश्च दोषश्च तयोविदं बुद्धि ख्यापयन्तु कथयन्तु । किन्तु अशुचिपदकतुष्टाः भ्रष्टपदग्रहणेन सन्तुष्टा ये आत्मघोषाः स्वमुखात् स्वप्रशंसाकारकाः ते सुदृष्टाः वराकाः काका इव के आत्मनि अकं पापं विद्यते येषां ते काकाः वायसाश्च कि काकुतर्कणा न आयान्तु, अपि तु आयान्तु ॥९१॥ कार्यासविशदाः सन्तो नानापत्तिसहा अहा । येषां गणमयं जन्म परेषां गुह्यगुप्तये ॥९२॥ कासित्यादि-येषां गुणमयं प्रशस्तं पक्षे तन्तुप्रायं जन्म परेषां जनानां गुह्यस्य दुराचारस्य पक्षे गोपनयोग्यांशस्य गुप्तये समाच्छादनाय भवति, ते नानापत्तिसहाः कार्पासवद् विशदा: स्वच्छाः सन्तो जनाः, जयन्तु इति शेषः । अहा इति आनन्दयुक्ताश्चर्यसूचने ॥१२॥ अर्थ-विशदिमविशदंशाः-स्वच्छतामें जिनका स्वभाव प्रवेश कर रहा है, अर्थात् जो काव्यके निर्दोष अंशको ग्रहण कर रहे हैं, ऐसे हंस विवेकी मनुष्य (पक्षमें हंसपक्षी) आस्वादनीय इस काव्यके विषयमें शीघ्र ही गुण और दोषको जानने वाली अपनी बुद्धिको सुविस्तृत करें, अर्थात् काव्यके गुण और दोषोंकी समीक्षा करें, परन्तु जो अशुचिपदकतुष्टा-अशुद्धके पदके ग्रहण करनेमें संतुष्ट हैं (पक्ष में पुरीष आदि अपवित्र स्थानोंमें संतुष्ट हैं, अपनी प्रशंसा स्वयं करते हैं, जो अपने आपमें अक-पापको संजोये हुए हैं (पक्षमें वायसतुल्य है), ऐसे दयनीय दुष्ट पुरुष इस काव्यके विषयमें किसी तरह काकु-तर्कणाको प्राप्त न हों, अर्थात् वे समीक्षाके अधिकारी नहीं हैं। अथवा समीक्षाके नाम पर वे 'काकु-विभिन्न प्रकारको कण्ठध्वनिको प्राप्त न हो ॥९२।। अर्थ-जिनका गुणमय-प्रशस्त गुणोंसे युक्त (पक्षमें सूत्रमय) जीवन दूसरोंके गुह्य-दुराचारों (पक्ष में गोपनीय अंग) के आच्छादन-छिपानेके लिये है, वे कपासके समान अनेक आपत्तियोंको सहन करने वाले सज्जन जयवन्त रहें। अहा, सज्जन ऐसे होते हैं ।।१२।। १. "भिन्नकण्ठध्वनि/रः काकुरित्यभिधीयते' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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