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१०३-१०७ ]
अष्टाविंशतितमः सर्गः
नित्यमभ्येयं
संसर्गं महतां शुभकर्मसु ।
तता धीः स्याच्च चित्तश्रीर्भूयाच्छ्रीततत्परा ॥ १०४ ॥ मनागपि न संचार: कृच्छ्रेषु मम धीमतः । प्रसादावर्हतां शेम्बधोरिणी स्यादिति स्वयम् ॥ १०५ ॥ पदानामाद्यान्ताक्षरपठनक्रमेण aa raat
एतस्य भवितुमर्हति । तद्यथा
कामना श्लोक पञ्चकस्य
जयपुरराज्यान्तर्गतराणावलीग्रामस्थितश्रीमत्चतुर्भुज निगमसुतश्रीभूरामल
कृतप्रबन्धोऽयम् ॥१००-१०५ ॥
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श्रयणीयास्तुका शुद्धा ब्रह्मविद्भिः किमजतम् । विद्वद्भिः का सदा वन्द्या मण्डितं तैः किमस्तु नः ॥ १०६ ॥ किमन्यदुच्यतामत्र सफलं समितिस्थले ।
सदुक्तेर्वाचनं यावदाद्यन्तं जन्मिनो भवेत् ॥ १०७ ॥
श्रयणीयेत्यादि - शुद्धा शुद्धरूपा का श्रयणीया गृहीतु' योग्या ? पुनः ब्रह्मविद्भिः आत्मज्ञानिभिः किमजतं संगृहीतम् ? विद्वद्भिश्च सदा का वन्द्या ? वन्दनीया भवति ?
शक्तिशाली हो । अब श्रीमन्त लोग सूक्ति सहित स्थिरताकी रक्षा करें। लोकनेताका अपना धर्म संसारमें चमत्कार उत्पन्न करे - सबको प्रभावित करे । मेरी कामना है कि शुभ कार्यों में नित्य ही महान् - बड़े पुरुषोंका संसगं प्राप्त करता रहूँ । बुद्धि विस्तृत हो, मनकी गति श्रुताभ्यास में तत्पर रहे। मुझ बुद्धिमान्का कष्टों में रंचमात्र भी संचार न हो और अरहन्त भगवान् के प्रसादसे स्वयं ही कल्याणों की परम्परा प्रवर्तमान रहे ।
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जयपुर राज्यके अन्तर्गत राणावली ग्राम में स्थित श्रीमान् चतुर्भुज सेठके पुत्र श्रीभूरामर (ल) के द्वारा किया हुआ यह प्रबन्ध है || १०९-१०५॥
अर्थ – किस शुद्ध स्वरूपका आश्रय करना चाहिये ? आत्म ज्ञानियोंके द्वारा संगृहीत क्या है ? विद्वानोंके द्वारा सदा वन्दनीय कौन है ? और इन सबसे हमारा क्या सुशोभित हो ? इन चार प्रश्नोंके होनेपर सबका यही एक उत्तर है कि सभा स्थल में जन्म से लेकर मरण पर्यन्त समीचीन युक्तियोंका वचन होना
१. शम्बधोरिणी - कल्याणानां परम्परा ।
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