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________________ ११-१२ ] चतुर्दश सर्गः ६७३ टीका- - एका युवतिः कृष्णवर्णां कोकिलां दृष्ट्वा निजवल्लभमाह - हे गुणमालिन् ! स्वामिन् ! अमुकां पिकों पश्य । तदा तदभिप्रायवेदी स आह- हे प्रिये ! तव अस्याश्च र वापां आली वाक्ततिमंजुला मनोहारिणी । इत्येतच्छ्रुत्वा सा पुनराह - हन्त हन्त क्तस्था मया सह तुलनास्ति । एषा त्यति कालो श्यामत्रर्गास्तीत्येवं श्रुत्वा स आह - हे तन्वि ! तव कचानां केशानां पाली परम्परापि किं काली नास्ति । वक्रोक्तिरलंकारोऽत्र ॥१०॥ कण्टकितं पदमङ्के नेतुः समधिकृत्य चाऽऽपदमपनेतुम् । कण्टकिताखिलतनुरजनीति तं च तथा कुर्वती सुगीतिः ||११|| टीका- सुष्ठु गीतिरुक्तर्यस्याः सा सुमीतिः कापि वनिता कण्टकयुक्तं कण्टकितं पदमात्मनश्चरणं नेतुर्नायकस्याङ्क किलापदमपनेतु निरापदत्वमुरीकतु समधिकृत्य धृत्वा चापि कण्टकिता कण्टकैर्युक्ता रोमाञ्चिताऽखिला सम्पूर्णा तनुर्यस्याः सा सती तं नेतारमपि तथा कण्टकितं कुर्वती विदधत्यजनि जाता । तद्गुणो नामालंकारः ॥११॥ कुसुमावचये सरजस्कदृशः फूत्कर्तुमिवेशे सति सुदृशः । मुदश्रुनिस्सरणेन चुम्बति समभावीह समुद्धरणेन ॥१२॥ टीका - इह कुसुमानां पुष्पाणामवचयः संकलनं यत्र तस्मिन् समये रजसा सहिता अर्थ -- कोई एक युवति काली कोयल देखकर पतिसे बोली- हे गुणमालीगुणज्ञ ! इस कोयलको देखो । युवतिके अभिप्रायको जानने वाला पति बोला कि प्रिये ! ( तुम्हारी) और इस कोयलकी वचनावली मनोहर है अर्थात् तुम दोनों ही प्रियवादिनी हो । यह सुन युवतिने कहा कि बड़े खेदकी बात हैइसके साथ मेरी तुलना कहाँ है ? यह तो काली है ( पर मैं काली नहीं हूँ) यह सुनकर पतिने कहा कि हे तन्वि ! क्या तुम्हारी केशपाली भी काली नहीं है यह वक्रोक्ति अलंकार है ॥१०॥ अर्थ - किसी मधुरभाषिणी स्त्रीके पैरमें काँटा लग गया, उसने आपदा दूर करनेके लिये अपना कण्टक युक्त पैर पति की गोदमें रख कर कहा कि कांटा निकाल दीजिये, परन्तु पतिके शरीरका स्पर्श पाकर उसका संपूर्ण शरीर कण्टकित - रोमाञ्चित पक्ष में कांटोंसे युक्त हो गया और पतिको भी उसने कण्टकित - रोमाञ्चित (पक्षमें काँटोंसे युक्त कर दिया ) । यह तद्गुणालंकार है ॥११॥ अर्थ — फूल तोड़ते समय किसी सुलोचना – सुन्दर नेत्रों वाली स्त्रीकी आँखमें फूलकी रज — पराग लग गयी । उसे फूंकनेके बहाने पति उसका चुम्बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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