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________________ ६७२ जयोदय- महाकाव्यम् [ ८-९-१० पक्ष सन्तानोत्पत्तिस्तस्य श्रिया स्पृहणीया, वीनां पक्षिणां वहनक्रिया संधारणचेष्टा पक्ष पाणिपीडनक्रिया सद्य एव शीघ्रमेव भुवि भवतीति किल सर्वदार्थे वर्तमानक्रिया । समासेक्तिरलंकारः । विल्वफलानि विलोक्य सहर्षं निजोरोजमण्डलं ददर्श । सहसा तानि तथैव सुयोषा पुनरपि द्रष्टुमभूयपदोषा ॥८॥ नेशायासूनि वल्लभानि तव कुचकुम्भववियानिदानीम् । भेदोऽस्तीति समाह वयस्या तदभिप्रायवेदिनी तस्याः ||९|| टीका - अपदोषा काइयों विदोषर्वाजता सुयोषा युवतिः हर्षेण सहितं सहर्ष विल्वस्य फलानि विलोक्य निजमात्मीयमुरोजयोः स्तनयोमंण्डलं ददर्श । पुनरपि सहसोत्साहेन तानि द्रष्टु ं तथैवाभूत् तदा तस्याः समीचीनाभिप्रायस्यान्तरङ्गभावस्य वेदिको ज्ञानवती वयस्या सखी सहसा हासयुक्ता सती समाह समुवाच यत्किलामूनि विल्वफलानि तव कुचकुम्भवत् ईशाय स्वामिने वल्लभानि प्रीतिदानि न भवन्तीतीयानिदानीं भेदोऽस्ति ॥ पश्य पिकीममुकां गुणमालिन् प्रिये मज्जुलास्याश्च र वाली । हन्त हन्त चैषास्त्यतिकाली किन्न तवापि तन्वि कचपाली ॥ १० ॥ पक्षियोंके धारण करनेकी चेष्टा हो रही थी अर्थात् फलयुक्त वृक्षोंपर विविध पक्षी उछल कूद कर रहे थे । यहाँ समासोक्तिसे अर्थान्तर -- दूसरा अर्थ प्रकट होता है- किसी युवकको वागाश्रित - वाग्दान -- सगाई रूप संपदाकी प्राप्ति हो रही थी, इसी उपलक्ष्य में संगीत आदि विविध कौतुकों - कुतुहलोंका संकलन हो रहा था और किसी जगह फलोदयश्रिया --संतान रूप फलकी प्राप्ति रूप शोभासे स्पृहणीय आकांक्षणीय विवहन क्रिया -- विवाहकी क्रिया हो रही थी । तात्पर्य यह है कि उस तीरोद्यानमें उपस्थित जन समूहमें किसी युवककी सगाई हुई और वही लगे हाथ विवाह भी हो गया । यह समासोक्ति अलंकारहै ॥७॥ अर्थ- कृशता आदि दोषोंसे रहित - गठीले शरीर वाली कोई युवति हर्ष. सहित विल्वफलों को देखकर अपने स्तन मण्डलको देखने लगी । देखकर वह पुनः शीघ्र ही उन विल्व फलोंको देखने लगी । इसी बीच उसके अभिप्रायको जानने... वाली सहेली सहसा - हँसकर बोली कि ये विल्वफल तुम्हारे स्तनोंके समान इस समय तुम्हारे पतिको प्रिय नहीं है इतना ही इन दोनोंमें भेद है ॥ ८-९ ॥ १. विवहनं विवाहः पक्षे वीनां पक्षिणां वहनं धारणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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