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चतुर्दश सर्गः
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यत्र तद्यथा स्यात्तथा। अन्यस्मै गुणस्योपकारस्य रीतिर्यत्र तद्यथा स्यात्तथा । तपस्यतः आतपे स्थितिमतोऽनोकहस्य वृक्षस्य तावत् सुकृतस्य-संगीतिः पुण्योदयोऽभूत् । अतो युवतीनां समूहो यौवतं तस्य प्रतीतिः प्रसक्तिरभूत् । योऽपि कोऽपि युवतिसंगमायोपरि चरणलवं नीचैश्च केशसहितं शिरो विधायापरेषु करुणापरायणश्च भवति तपः कर्तु मिति समासोक्तिरलंकारः ॥६॥ वागाश्रितसम्पदोऽभ्युपास्तिः कौतुकसंग्रहोऽमुकस्यास्ति । सद्य एव भुवि विवहन क्रिया स्पृहणीयापि फलोदयश्रिया ॥७॥
टीका-अमुक स्य वनप्रदेशस्य वा अगान् वृक्षानाश्रिता प्राप्ता या सम्पत् अभ्युपास्तिः समुपलब्धिः, पक्षे वाग्दानात्मिकायाः सम्पदोऽधिगतिः । तथा कौतुकानां पुष्पाणां पक्षे विदोदभावानां संग्रहः संप्राप्तिरस्ति भवति । फलानामाम्रादीनामुदयः प्रादुर्भावः
जटि--नीचेकी ओर जड़ोंको करके (पक्षमें जटाधारी-शिरको करके) तथा दूसरोंके लिये गणरीति--उपकार करनेकी रीतिको प्रकट कर तपस्या कर रहा था--घाममें खड़ा था अतः उसके सुकृतसंगीति--पुण्यका उदय हुआ था। इसी कारण युवतियों के समूहका उस ओर प्रतीति--प्रति + इति गमन हो रहा था । पक्ष में प्रतीति-विश्वास हो रहा था। यहाँ समासोक्तिसे यह भाव प्रकट किया गया है कि जिस प्रकार कोई पुरुष ऊपरकी ओर पैर और नीचेकी ओर शिर कर धूपमें खड़ा हो, तपस्या करता है तो उसे बहुत पुण्यको प्राप्ति होती है और उसके फलस्वरूप यौवत-युवति समूहका उस पर विश्वास जागृत होता है फलतः युवति समूह आदि भोगोपभोगको सामग्री उसे प्राप्त होती है। यहाँ समासोक्ति अलंकार है ॥ ६ ॥
अर्थ--अथवा वहाँ किसी वन प्रदेशको अगाश्रितसम्पवः-वृक्षों सम्बन्धी सम्पत्तिकी प्राप्ति थी अर्थात् कहीं सघन वृक्षावलीकी शोभा बिखर रही थी। कहीं कौतुकसंग्रह--पुष्पों का संग्रह हो रहा था अथवा वृक्षोंके नीचे बैठे लोग तरह तरहके विनोद कर रहे थे अथवा को-किसी भूमिमें 'तुकसंग्रहः बच्चे एकत्रित हो खेल रहे थे। कहीं भूमि पर फलोदयश्रिया-आम आदि फलोंके प्रकट होनेकी शोभासे स्पृहणीय-मनोहर विवहन क्रिया-तोता मैंना आदि
१. कौतुकं त्वभिलाषेऽपि कुसुमे नमहर्षयोः' इति विश्वलोचनः । २. 'क्षमा धरित्री क्षितिश्च कुः' इति धनंजयः । ३. 'तुक तोकं चात्मजः प्रजा' इति धनंजयः ।
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