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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [ ५-६ संगदस्तस्य भावः संगदता तामनुययौ । संसर्गयोग्यतां जगामेति विरोधा भासोऽलंकारः ॥४॥ बहुकल्पपादपैरपि रम्यं सुमनःसमूहतो भुवि गम्यम् । नन्दनं वनमिवातिमनोज्ञं पुण्यपूरुषैर्बभूव भोग्यम् ||१|| टीका - यद् वनं नन्दनं स्वर्गीयवनमिव भुवि धरायां बभूव । यतस्तद् बहुकल्पैरनेकप्रकारकैः पादपैरपि रम्य मनोहरं पक्षे बहुभिः कल्पपादपैः सुरवृक्षैरपि रम्यं । सुमनसां पुष्पाणां पक्षे देवानां समूहतो गम्यं ज्ञेयमेव । पुण्यपूरुषैर्महाभागजनैः भोग्यमनुभवयोग्यमिति श्लेषोपमालंकारः ॥५॥ उच्चैः पल्लवमधोजेटीति तपस्यतोऽन्यस्मै गुणरीति । यौवनंप्रतीतिः ||६|| टीका - उच्चैर्गताः पल्लवाः पत्राणि यत्र तद्यथा स्यात्तथा । किञ्चाधो गच्छन्ति जटा अनोकहस्य सुकृतसंगीतिरभूदतो ६७० देखकर संगदतां - पति समागमको देने वाली क्षमताको प्राप्त हुई थी । वृक्षोंकी सघन छाया देख उसे विश्वास हुआ था कि यहाँ अवश्य ही पतिका समागम प्राप्त होगा । यह विरोधाभास अलंकार है ||४|| अर्थ - वह उद्यान पृथिवी पर नन्दन वनके समान अत्यन्त मनोहर था, क्योंकि जिस प्रकार नन्दन वन बहुकल्पपादपैः - अत्यधिक कल्पवृक्षों से रम होता है उसी प्रकार वह उद्यान भी बहुकल्प - पादपैः - अनेक प्रकारके वृक्षोंसे रमणीय था । जिस प्रकार नन्दनवन सुमनः समूह -- देवोंके समूह से जानने योग्य होता है उसी प्रकार वह उद्यान भी सुमनः समूह - विद्वानोंके समूहसे जानने योग्य था और जिस प्रकार नन्दनवन 'पुण्यपुरुष - यक्षजनोंसे भोग्य होता है उसी प्रकार वह उद्यान भी पुण्यशाली पुरुषोंसे भोग्य था । यह श्लेषोपमालंकार है ॥५॥ अर्थ - यतश्च उस उद्यानमें कोई अनोकह - वृक्ष उच्चैः पल्लवं -- ऊपरकी ओर पत्तोंको करके ( पक्ष में ऊपरकी ओर पद् लवों--पैरोंको करके), अधो १. जटा विद्यन्ते यस्य तत् जटि शिरः । २. युवतीनां समूहो यौवतम् तस्य प्रतीतिः विश्वासः पक्षे प्रति इतिः गमनमित्यर्थः । ३. बहुप्रकाराः बहुकल्पाः ते च ते पादपाश्च तैः । पक्षे बहवश्च ते कल्पपादपाश्च बहुकल्पपादपाः तैः । ४. 'सुमनाः पुष्पमालत्योः स्त्रियां घीरे सुरे पुमान्' इति विश्वलोचनः । ५. पदोर्लवाः पल्लवाः चरणांशाः, पक्षे पत्राणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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