SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३-४] चतुर्दश सर्गः समास्वादयितुमिहागात् प्राप्ता, किन्त्वसावेवासको स्वयमेवेतः पवित्रीभूतशरीरा वृक्षस्य तस्य छाययालङ्कृतशरीरा भवित्री सती किलाछायाविहीना भवित्रीति, तस्य छायां भोक्तुगता स्वयं छायां व्यतीतवतीति वैपरीत्यमभूत् । एष विरोधाभासोऽलंकारः ॥३॥ अगदलसच्छायां परिपश्य (?) संगवतामनुययौ वनस्य । दूरे जरस्य निजीयधीतः पृथुलवलिभृतोऽनुरागिणीतः ॥४॥ टोका-काचिद् युवतिः, निजीयधीतः स्वकीयबुद्धित एव, इतः सकाशात् अनुरागिणी सम्बद्धप्रीतिः सती, दूरेजरस्य जरारहितस्यापि पृथुलवलिभृतः बहुबलिशालिनः इति विरोधः। तस्य परिहारः-दूरे जरस्य दूरंगतमूलस्य पृथु विपुलविस्तारं लवलिवृक्ष विभौति तस्य पृथुलवलिभृतो वनस्य, अतएव अगवस्य गदरहितस्य लसन्ती या छाया तां परिपश्य (?) दृष्ट्वा संगतदा पर्याप्तरोगितामनुययाविति विरोधः। तस्य परिहारःअगस्य वृक्षस्य यानि दलानि पत्राणि तेषां सती या छाया तो परिपश्य (?) संगं बदातीति गयी परन्तु पवित्र-उज्ज्वल शरीर वाली वह युवति यहाँ आकर स्वयं अच्छाया-छायासे रहित हो गयी। आयी थी छायाका उपभोग करनेके लिये परन्तु स्वयं छायासे रहित हो गयी, यह विरोध है । परिहार यह है कि वह यहाँ आकर स्वयं अच्छाया'-निर्मल भाग्यवाली हो गयो । अर्थान्तरमें जो युवति किसी युवककी शोभा देखकर हर्षित होती हुई संभोगके लिये यहाँ गयी थी उसका शरीर स्वेद नामक सात्त्विकभावके कारण पवित्र-जलरूप हो गया अतः वह उस युवककी छायाका उपभोग नहीं कर सकी ।।३।। ___ अर्थ-कोई एक स्त्री अपनी बुद्धिसे इतः-इस उद्यानमें अनुरागिणी-प्रीति सहित हो, दूरेजरस्य-वृद्धत्वसे रहित होनेपर भी पृथुल बलिभृतः–विस्तृत वलियों-वृद्धावस्थामें प्रकट होनेवाली झुर्रियोंको धारण करनेवाले (परिहार पक्षमें) दूरेजरस्य-दूर तक फैली हुई जड़ोंसे सहित, विशाल लवलि (हरफररे बड़ी) वृक्षको धारण करनेवाले वनकी अगवलसच्छायां रोगापहारिणी सुन्दर छायाको देखकर संगवतां-सब ओरसे सरोग अवस्थाको प्राप्त हुई थी यह विरोध है । परिहार पक्षमें अगदलसच्छायां-वृक्षके पत्तोंकी सुन्दर छायाको १. न विद्यते छाया यस्याः सा । पक्षे अच्छो निर्मलः अयो भाग्यं यस्याः सा । 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः' इत्यमरः । 'अयः शुभावहो विधिः' इत्यमरः । २२. 'पवित्रमुपवीताम्बुताने दर्भेऽपि धर्मणि' इति विश्वलोचनः । 'स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः। वैवर्ण्यमथुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विकाः स्मृताः' साहित्यदर्पणे । ३. श्लेषके कारण र और 3 में अभेद किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy