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जयोदय-महाकाव्यम् तस्य परिहारः-दूरादायातोऽभिप्राप्तः शिष्टो जनः सोऽपि च सुरतस्य स्त्रीप्रसङ्गस्य विचारेण विशिष्टः समजनि सम्बभूव। केनेति चेत् ? तेनतथागतस्य बुद्धस्य समीरणेन प्रेरणेन । स एव चासुगतवैभववान् सुगतवैभवेन हीन इति विरोषः। तस्य परिहारःतेन तथा मन्दमन्दरूपेणागतेन समीरणेन वायुना, असुभ्यः प्राणेभ्यो गतं प्राप्तं यद् वैभवं तद्वानिव समजनि जात इति । विरोधाभासोलंकारः ॥२॥
दृष्ट्वाच्छायां तरुणोपात्तां हृष्टा सम्भोक्तुमिहागाताम् । अच्छाया स्वयमितः पवित्रीभूतशरीराऽसको भवित्री ॥३॥
टीका-काचिन् युवतिस्तरुणा वृक्षणोपात्ता संजनिता छायां यद्वा तरुणेन युवकेनोपात्तां संलग्षां छायां शोभां तद्गतशरीरसुन्दरतां दृष्ट्वा हृष्टा प्रसन्ना सती तां संभोक्तु
क्रीडाके विचारसे युक्त हो गया। यह विरोध है जो कुत्सितरतसे युक्त है वह सुरतसे युक्त कैसे हो सकता है ? विरोधका परिहार यह है कि दूरतोऽपि चायातः-दूरसे भी आया हुआ वह शिष्टजन समूह सुरतविचारविशिष्टःस्त्री संभोगके विचारसे युक्त हो गया। तात्पर्य यह है कि उद्यानकी सुन्दरतारूप उद्दीपक विभावके मिलनेपर काम-शृंगाररससे आकुलित हो गया। साथ ही तथागत समीरणेन-बुद्ध की समीचीन प्रेरणासे युक्त होनेपर भी असुगत' वैभववानिव-सुगत-बुद्धके वैभवसे रहितकी तरह हो गया। यह विरोध हैजो बुद्धकी समीचीन प्रेरणासे युक्त है वह बुद्धके वैभव-प्रभुत्वसे रहित कैसे हो सकता है ? विरोधका परिहार इस प्रकार है-वह शिष्टजन समूह तथा-आगतसमीरणेन-उस प्रकार मन्दमन्दरूपसे आयी हुई वायुसे असुप्राणोंके लिये गत-प्राप्त वैभवसे युक्त जैसा हो गया था। भाव यह है कि उद्यानकी मन्द-मन्द सुगन्धित वायुसे शिष्टजन समूहको ऐसा लगा मानों हमारे प्राणोंके लिए कोई वैभव-बहुत भारी सम्पत्ति ही मिल गयी हो यह विरोधाभासालंकार है ॥२॥
अर्थ-कोई युवति तरणोपात्ता-वृक्षके द्वारा जनित छाया-अनातपको देखकर प्रसन्न होती हुई उसका उपभोग-सेवन करनेके लिये इस उद्यानमें गयी। अथ च, कोई युवति तरणोपात्तां-युवकके द्वारा प्राप्त छाया-शोभा या कान्तिको देखकर प्रसन्न होती हुई उसका उपभोग करनेके लिये इस उद्यानमें १-२ 'सर्वज्ञः सुगवो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः' इत्यमरः । ३. तरुणा वृक्षेण उपात्तां संजनितां । ४. तरुणेन युवकेन उपात्तां प्राप्तां ।
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