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१२७६ जयोदय-महाकाव्यम्
[६२एव सम्यग् ध्यानं संध्यानं पूरणाय बभूव सकलकार्यसिद्धयर्थं जातम् । तथा विधो रात्रिनाथात् अमृतमासाद्य पुनरर्कतः सूर्यस्य सकाशाद् दिवसे संतापं त्यजतः नन्दिभिः आनन्देरीक्षिता श्रीः शोभा यस्य तस्य सर्वदेव सुखिन इति पूरणाय अहोरात्रस्य पूर्तिकरणार्य प्रभातं सूर्योदयपूर्वकालः सन्ध्या सूर्यास्तमनवेला च बभूव ॥६१॥
सावश्यकोऽपि गुप्तिस्थस्त्यावश्च महद्धिकः । मनःपर्ययसंरोधी मनःपर्ययमाप्तवान् ॥६२॥ सावश्यक इत्यादि-अवश्यः स्वैरचारी क आत्मा तेन सहित सावश्यकः स्वतन्त्रः अपि पुनः गुप्तिस्थः कारानिबद्ध इति विरोषः, तस्माद् आवश्यकैः बन्दनाप्रतिक्रमणादिषट्कर्मभिः सहितः सन् गुप्तिस्थः मनोवाक्कायसंगोपक आसीत् इत्यर्थः । एवं त्यक्ता ऋषयो धनधान्याविगृहस्थोचितसम्पत्तयो येन स त्यद्धिश्च महद्धिकः धनसम्पत्तिशाली इति विरोधस्तस्माद् महडिकोऽणिमाविशाली इत्यर्थः । मनसःपर्ययसंरोधी चित्तभ्रमनिरोधकरः सन्नपि मनःपर्ययं मनसो विभ्रमणमाप्तवान् इति विरोधस्तस्मान्मनःपर्ययज्ञानं जिनागमोक्तं चतुर्थ दिव्यज्ञानमाप्तवानित्यर्थः ॥६२॥
छोड़ने वाले तथा दीक्षितश्रियः-साधुओंमें शोभा सम्पन्न जयकुमारका प्रातःकाल सन्ध्यान-समीचीन ध्यानकी पूर्तिके लिये हुआ था, अर्थात् समस्त कार्योंकी सिद्धि के लिये हुआ था। __ अर्थान्तर-रात्रिमें विधु-चन्द्रमासे अमृत लेकर दिनमें सूर्यसे संतापको छोड़नेवाले तथा नन्दी-आनन्द युक्त जनोंके द्वारा जिनकी शोभा ईक्षितअवलोकित है, ऐसे जयकुमारके प्रभात और सन्ध्या दिनरातको पूर्ण करनेके लिये होते थे । अर्थात् जब जयकुमार मुनि ध्यानारूढ होते थे तब रात्रिमें चन्द्रमा उनके शरीरको शीतलता और दिनमें सूर्य संताप पहुंचाता था, प्रातःकाल और सन्ध्याकाल क्रमशः निकलते जाते थे ॥६१॥
अर्थ-जयकुमार सावश्यक-स्वतन्त्र होकर भी गुप्तिस्थ थे-कारागारमें स्थित थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि प्रतिक्रमण आदि छह आवश्यकोंसे सहित होकर मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियोंमें स्थित थे। इसी प्रकार त्यद्धि-गृहस्थोचित धनधान्यादि सम्पत्तियोंके त्यागी होकर भी महद्धिक-बहुत भारी सम्पत्तिसे सहित थे, यह विरोध है । परिहार यह है कि वे महद्धिक-अणिमा, मर्महिमा आदि ऋद्धियोंसे सहित थे । तथा मनःपर्ययसंरोधी-चित्तभ्रमणके निरोधक होकर भी मनःपर्यय-चित्तभ्रमणको प्राप्त थे, यह विरोध है। परिहार यह है कि मनःपर्यय-नामक चतुर्थ ज्ञानको प्राप्त हुए थे ॥६२॥
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