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१२७० जयोदय-महाकाव्यम्
[५१-५२ मानरहितं कृतम् एवं परस्परविरोधतत्परिहारः कुलता कुलीनता सैव येन सुलता देवत्वममानि स्वीकृता तस्मात्त नासुमता प्राणधारकेण सुमता श्रेष्ठता स्वीकृता । एवं जनुः मानिकृतं पूज्यतां नीतम् ॥५०॥
सजताप्यजतावापि येनात्मनि नयेन तु।
निश्चयेन चयेनापि भूविभूक्तिभृता तवा ॥५१॥ सजतेत्यादि-तेन आत्मनि येनापि नयेन सजतापि पुनरजता वापि, निश्चयेन च येन भूः सैव विभूक्तिभृतापि भूरवापि इति विरोधः । तस्मादेवमर्थः-येन जयेन नयेन आत्मनि सजता ध्यानं कुर्वता अजतावापि अविनाशिरूपतात्मनः स्वीकृता, येन च निश्चयेन विश्वासेन विभूक्तिभृता प्रभुनाम जपता भूर्भमिरवापि इत्यर्थः । सततमेव परमात्म नाम जपता आत्मनि संनिमज्ज्याविनाशिताऽवापि । एवं तात्पर्यम् ॥५१॥
देहेऽपि निर्ममत्वेन ममत्वे नो व्यथाकरः ।
न तत्त्वमपि बिभ्राणस्तत्वमाप गुरूक्तिषु ॥५२॥ देहेऽपीत्यादि-स देहेऽपि स्वशरीरेऽपि निर्ममत्वेन ममतारहितत्वेन युक्तः कि 'पुनरन्यत्र, पुनरपि ममत्वे नो व्यथाकरो बाधाकरो नासीविति विरोषः, तस्मात् मम तु
रूप माना था। असुमता-प्राण धारण करनेवाले जिन जयकुमारने सुमताश्रेष्ठताको अङ्गीकृत किया था और अपने जन्मको मानि-सन्मानसे सहित किया था ।।५०॥
अर्थ-जिन जयकुमारने आत्माके विषयमें सजता-जन्म सहितता प्राप्तकी, उन्होंने अजता-जन्मरहितता प्राप्त की और निश्चयसे जो विभूक्तिभृता-भू शब्दके उच्चारणसे विगत-रहित थे उन्हींने उस भू-पृथिवीको प्राप्त किया, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है-आत्मनि सजता येन-आत्मामें लीन होने वाले जिन जयकुमारने अजता-जन्मरहितता प्राप्तकी थी और विभूक्तिभृता-प्रभुका नाम लेनेवाले जिन जयकुमारने पृथिवी प्राप्त की थी ।।५१॥
अर्थ-जयकुमार शरीरमें भी ममताभावसे रहित थे, फिर अन्यकी तो बात ही क्या है ? इतना होनेपर भी वे ममताभावमें व्यथाकर-बाधा करनेवाले नहीं थे, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है-मम तु एनो व्यथाकर:-उनका अभिप्राय था कि मेरे लिये पापका नाश करने वाला ही प्रिय है। तथा तत्त्वं न बिभ्राणोऽपि-तत्त्व-यथार्थताको न धारण करते हुए भी वे गुरुओंकी उक्तियोंवचनोंमें तत्त्वको प्राप्त हुए थे, यह विरोध है। इसका परिहार यह है-तत्वं
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