________________
५३-५४ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः
१२७१ पुन एनोव्यथाकरः पापनाशक इति, तथा गुरूक्तिषु गुरोरुपदेशेषु तत्त्वं न बिभ्राणोऽपि तत्त्वमापेति विरोधः, तस्मात् नतत्वं नम्रत्वं बिभ्राणःतत्वं सत्यार्थत्वमोपेति ॥५२॥
समरूपगतां वृत्ति वधानो नलताश्रिताम् ।
वारितापक्रमोऽप्येवं नतरूपति वधौ ॥५३॥ समरूपेत्यादि-समरूपं प्रशमभावं रागद्वेषाभावात्मकं गच्छतीति सा वृत्तिश्चेष्टा ता, कोवृशीं तो ? नलतां रलयोरभेवान्नरतां मनुष्यता समाश्रितां दधानः, वारितः परिहारितोऽपक्रमो दुर्मार्गप्रवृत्तिलक्षणो येन स जयकुमार एवं रीत्या नतरूपा च तां गति विनीतवृत्ति वधौ। तथा स कश्चिदपि जनो वारितापक्रमः वारिताया जलसत्ताया अपक्रमोऽभावो यस्य स मरूपगतां मरवेशेन उपगतां प्राप्तां वृत्ति वधानो लताभिर्वल्लरीभिः अनाधितां वृत्ति वधानस्तरूणामुपति वृक्षाणां सत्तां न वषावित्यर्थः ॥५३॥
मरुताश्रितसम्पत्तिमिच्छताथ स्वरङ्गता।
साधूरीक्रियते स्मैवं निर्जराशयसंजुषा ॥५४॥ मरतेत्यादि-अथ मरता देवेनाधितो सम्पत्ति स्वर्गलक्ष्मीमिच्छता निर्जराशयसंजुषा देवाभिप्रायशालिना स्वः स्वर्गस्याङ्गता साधु यथा स्यात्तथा उरीक्रियते स्म । तथा बिभ्राणोऽपि-नम्रत्वको धारण करते हुए वे गुरुवचनोंमें तत्त्व-यथार्थताको प्राप्त हुए थे ।।५।।
अर्थ-जो समरूपगतां-प्रशमभावको प्राप्त तथा नलताश्रितां-नरताश्रितां-मनुष्यतासे युक्त वृत्तिको धारण कर रहे थे तथा वारितापक्रमः-दुर्गि प्रवृत्ति रूप अपक्रमको जिन्होंने निवारित कर दिया था, ऐसे जयकुमारने इस तरह नतरूप वृत्ति-विनीतवृत्तिको धारण किया था। ___अर्थान्तर-वारितापक्रमः-जलके सद्भावसे रहित स-कोई व्यक्ति मरूपगतां मरुस्थलसे प्राप्त और न लताश्रितां-लताओंसे अनाश्रित वृत्तिको धारण करता हुआ तरूपगति न दधौ-वृक्षकी संगतिको प्राप्त नहीं होता, अर्थात् जिस प्रकार जलाभावसे पीड़ित मनुष्य मरुभूमिमें भ्रमण करता हुआ विश्रामके लिये न कहीं लताको प्राप्त होता है और न वृक्षको, उसी प्रकार संसाररूप मरुस्थलमें भ्रमण करता हुआ विषयाभिलाषी मनुष्य कहीं भी विश्रामको प्राप्त नहीं होता ॥५३॥ ___ अर्थ-देवोंके द्वारा आश्रित सम्पत्ति-स्वर्गलक्ष्मीको इच्छा करनेवाले तथा देवोंके अभिप्रायसे सुशोभित मनुष्यके द्वारा अच्छी तरह स्वरङ्गता-स्वर्गकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org