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________________ १२६२ जयोदय-महाकाव्यम् [३५-३६ भक्तात्मनेत्यादि-तेन भक्तात्मना भगवद्भक्तियुक्तेन यद्वा ओदनरूपेण तेन सूपयोगिता उत्तमोपयोगवत्ता तथैव दालीसंयोगिता स्फुरदूपा स्पष्टरूपा आराधिता तत्र कोद्भूतलक्षणं आत्मसंजातरूपं व्यञ्जनं वास्तु भूयात् । यद्वा वास्तुकान्नाम पत्रशाकादुद्भूतं लक्षणं यस्य तद् व्यञ्जनं नाम लगवणं (इति देशभाषायां) सम्मतं युक्तमेव ॥३४॥ क्षमाशीलोऽपि सन् कोपकरणैकपरायणः । बभूव मार्दवोपेतोऽप्यतीव दृढधारणः ॥३५॥ क्षमाशील इत्यादि-स क्षमाशीलः परकृतस्यापराधस्याप्युपेक्षावान् सन्नपि कोपकरणे क्रोधावेशे परायण इति विरोधस्तस्मात् कस्यात्मनो यान्युपकरणानि संयमनियमादीनि तेषु परायण इति परिहारः। मार्दवोपेतः कोमलतायुक्तोऽपि अतीव दृढधारणः काठिन्ययुक्त इति विरोषस्तस्माद् मार्दवधर्मोपेतः सन् दृढधारणावान् बभूवेति परि. हारः ॥३५॥ अप्यार्जवश्रिया नित्यं समुत्सवक्रमङ्गतः । पावनप्रक्रियोऽप्यासोत्तदा शौचपरायणः ॥३६॥ अप्याजवेत्यादि-आर्जवश्रिया सरलतया समुद् हर्षयुक्तोऽपि स जनः वक्रमङ्गतः कुटिलयाचक इति विरोधस्तस्मात् आर्जवधर्मयुक्तः सन् .समुत्सवस्य क्रमं गत आसोदिति अर्थ-मुनि अवस्थामें भगवद्भक्तिसे युक्त जयकुमारने अत्यन्त स्पष्ट, उत्तम उपयोगसे सहित अवस्थाकी आराधना की थी। अत एव कोदभूतलक्षणआत्मासे उत्पन्न लक्षण, व्यञ्जन-प्रकट हो, यह उचित ही था। भगवद्भक्त पुरुष आत्मस्वरूपका अनुभवी होता ही है। __ अर्थान्तर-भक्तात्म-ओदनरूप व्यक्तिने सूप-दालका उपयोग किया और वास्तुक-बथुआकी भाजी साथमें ली, यह उचित ही था ॥३४॥ अर्थ-वे जयकुमार क्षमाशील होनेपर भी कोपकरणैकपरायण-क्रोध करनेमें मुख्यरूपसे तत्पर थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि वे क्षमाशील होकर भी क-आत्माके उपकारी संयम-नियम आदिके करनेमें प्रमुख रूपसे तत्पर रहते थे। इसी प्रकार मार्दव-कोमलतासे मुक्त होकर भी दृढधारणः-कठोरतासे युक्त थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि वे मार्दव धर्मसे युक्त होकर भी दृढधारणा शक्तिसे युक्त थे ॥३५॥ ___अर्थ-वे जयकुमार आर्जवश्री-सरलताकी शोभासे निरन्तर समुद्-हर्ष सहित होकर भी वक्रमंगत-कुटिल याचक थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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