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________________ ३२-३४] अष्टाविंशतितमः सर्गः जगतां विमुखेनापि सतां मागें सपक्षता । साधनेन विना साध्यसिद्धिरातीवहो पुनः ॥३२।। जगतामित्यादि-जगतां त्रिलोकानां विमुखेन तेन जयकुमारेण सतां मार्गे सभ्यानां बमनि मुक्तिपथे सपक्षता आपि रुचिः कृता। तथा विमुखेन पक्षिमुख्येन सतां मार्गे गगने सपक्षता पक्षाभ्यां युक्तता आपि। धनेन विना परिग्रहेण रहितत्वाद् आधीनामुपाथीनामसिद्धिः निष्फलता सा चानिर्वचनीयासीत् । तथा साधनेन हेतुना विनापि साध्यस्य सिद्धिरस्यासीत् पुनरहो आश्चर्यम् ॥३२॥ अपत्रपाज्जगवृत्तात् संत्रस्तहृदयो भवन् । सम्पल्लवसमारब्धां योगच्छायामुपाविशत् ॥३३॥ अपनपादित्यादि-अपनपात् लज्जारहितात् पक्षे निष्पत्रात् जगवृत्तात् लौकिकचरित्रात् संत्रस्तं भयभीतं हृदयं यस्य स भवन् यः जयकुमारः सम्पदो लवा अंशा यत्र तेन समेन प्रशमभावेन आरब्धां पक्षे समीचीनः पल्लवः समारब्धां योगस्य ध्यानस्य छायां पक्षे यः स जयकुमारः अगच्छायां वृक्षस्य छायामुपाविशत् ॥३३॥ भक्तात्मना स्फुरदूपाराधिता सूपयोगिता । व्यजनं वास्तुकोद्भूतलक्षणं तत्र सम्मतम् ॥३४॥ अर्थ-तीनों लोकोंसे पराङ्मुख रहनेवाले जयकुमारने सभ्य पुरुषोंके मार्गमोक्ष मार्ग में सपक्षता-रुचि प्राप्त की। अथवा विमुख-पक्षियोंमें मुख्य जयकुमारने सतां मार्गे-आकाशमें सपक्षयुक्तता-पक्षसहितपन प्राप्त किया अथवा धनके बिना-परिग्रहसे रहित होनेके कारण उपाधियोंकी वह अनिर्वचनीय निष्फलता प्राप्त को । अथवा साधनके बिना भी साध्यकी सिद्धि हुई थी, यह आश्चर्य की बात थी ॥३२॥ अर्थ-अपत्रप-लज्जारहित जगवृत्त-लौकिक चरित्रसे जिनका हृदय भयभीत हो गया था, ऐसे जयकुमार सम्पत्तिके अंशोंसे सहित अथवा आगमके समीचीन पदों-वर्णसमूहके अंशोंसे सहित सम-प्रशमभावके द्वारा प्रारब्ध-प्रारम्भको गई योगच्छाया-ध्यानकी छायामें उपविष्ट हुए । अर्थात् मुनि अवस्थामें आगमके पद-पदांशोंका आश्रय ले शुक्ल ध्यानमें आरूढ हुए थे। __ अर्थान्तर-अपत्रप-निष्पत्र-रूक्षतम जगत्के व्यवहारसे भयभीत हृदय जो जयकुमार थे, वे सम्पल्लवसमारब्धां-समोचीन किसलयोंसे प्रारब्ध अगच्छायावृक्षकी छायामें समुपविष्ट हुए थे ।।३३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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