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________________ १२६० जयोदय-महाकाव्यम् नाप्तवान् । अथवा अन्यस्य हिते रतः परोपकारपरायणः स जयकुमारो यावद् घनं यावन्मात्रकालमितं नेत्रवालं मिमेषरूपं तावद्धा विश्वतः संसारात् श्रियः स्थिति सम्पत्त्यवस्थानं मत्वा तां नातिससार सांसारिकसम्पत्ती आसक्तो नाभूदित्यर्थः ॥३०॥ प्रत्याहारमुपेतो वा यमिताधुपयोगवान् । तत्रान्तराय मासाद्य धारणाख्यातिमादधौ ॥३१॥ प्रत्याहारेत्यादि-प्रत्याहारं नाम व्याकरणोक्तसंकोचमुपेतः अयं जयकुमारः इता अप्रयोगिवर्णेन स आदेः शब्दस्योपयोगवान् तत्र तयोर्मध्येऽन्तः आयः सम्प्राप्तिर्यस्य वर्णसमूहस्य तं आसाद्य 'सात्मेत्यादि'-व्याकरणसूत्रस्य धारणाख्याति स्मृतिमादधौ । अथवाआहारं प्रत्युपेतः स यमिता संयमिता आदौ येषां क्षमादीनां तेषाम् उपयोगवान् जयकुमारस्तत्र भुक्तिवेलायामन्तरायमासाद्य यत्किचिद् विघ्नमात्रं प्राप्य पुनः धारणाख्यातिननशनसंकल्पक्रियां आदधौ। तथा च प्रत्याहारं नाम ध्रुवोर्मध्यदेशादिषु यथेच्छं मनोनयनमुपेतः स यमितायुपयोगवान् जयकुमारः अयं महात्मा तत्रान्तरा तन्मध्ये तन्मन आसाथ स्थापयित्वा धारणाख्याति नाम ध्यानस्याङ्गविशेषमावधौ ॥३१॥ अर्थान्तर-घन-नागमोथा, नेत्रवाला, धना, सोंठ और बेल फलको लेकर अतिसार रोगको प्राप्त नहीं हुए। (अप्रासङ्गिक अर्थ है) ॥३०॥ अर्थ-प्रत्याहार-व्याकरण शास्त्रमें कही हुई विधिको प्राप्त हुए इन जयकुमारने इत् संज्ञक अन्तिम वर्णके द्वारा आदि प्रथम अक्षर और आदि तथा अन्त अक्षरके मध्यमें आगत वर्णों को ग्रहण कर प्रत्याहार विधिको धारणा की थी। ___ भावार्थ-व्याकरणमें आदि और अन्तिम अक्षर तथा मध्यपाती अक्षरोंको लेकर प्रत्याहार बनता है। जैसे 'अइउण' यहाँ अन्तिम ण इत् संज्ञक होता है। उसे छोड़ दिया जाता है । आदि अक्षर अ है और मध्यमें इ उ आते हैं। इस प्रकार अण् प्रत्याहारमें 'अ इ उ' इन तीन अक्षरोंका समावेश होता है । वे इस प्रत्याहार विधिको स्मृतिको प्राप्त थे । अथवा मुनि अवस्थामें जब जयकुमार आहारके प्रति-आहारके अभिप्रायसे श्रावकके घर आते थे, तब अपने संयमीपनका उपयोग करते हुए यदि चरणानुयोगमें प्रसिद्ध अन्तरायको प्राप्त होते थे, तब पुनः उपवास आदि नियमोंकी धारणा करते थे। अथवा ध्यानकी वेलामें दोनों भोंहोंके बीच अपना मन लगाकर योगशास्त्रमें प्रसिद्ध यमिता आदि विधिका उपयोग करते हुए धारणा नामक ध्यानके अङ्गको प्राप्त होते थे ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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