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________________ ३७-३८ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२६३ परिहारः । पावनप्रक्रियः पवित्रतायुक्तोऽपि आशौचपरायणः सूतकनामाशुद्धि युक्त इति विरोषस्तस्मात् शौचधर्मयुक्तस्संतोषशीलस्सन् पवनस्येवं पावनं तद्रूपप्रक्रिय मासीत् सदा विचरणशील इति परिहारः ।।३६।। श्यामतां नान्वगाच्चित्ते सत्यानुगतवृत्तिमान् । यमादभीत एवासीत् संयमप्रभयान्वितः ॥३७॥ श्यामतामित्यादि-चित्ते सत्यया सत्यभामया नाम महिष्यानुगता या सौ वृत्तिश्चेष्टा तद्वान् सन्नपि श्यामतां माधवतां नान्वगादिति विरोधः, तस्मात्सत्येनावितथवचनेन अनुगतवृत्तिमान् सत्यवक्ता भवन् श्यामतां पापाशयतां नान्वगाद् इति परिहारः। यमस्य समीचीनया प्रभयान्वितोऽपि यमादभीत इति विरोधः, तस्मात् संयमस्येन्द्रियवमनस्य प्रभयान्वितस्सन् यमादन्तकादभीत एवासीदिति परिहारः ॥३७॥ असन्तप्तान्तरसोऽपि तपसि प्रणिधिं गतः ।। न त्यागमहितोऽप्यासीत् त्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥३८॥ __ असन्तप्तेत्यादि-तपसि नाम संतापे प्रणिधि गतोऽपि असन्तप्तान्तरङ्ग एवं विरोधः । तपसि नाम तपस्यायां प्रणिधिं गतः विचारवानासीद् इति परिहारः। त्यक्ता है कि आर्जव धर्मसे युक्त होकर समुत्सवक्रमं गतः-समीचीन उत्सवके क्रमको प्राप्त थे। तथा पावनप्रक्रियः-पवित्रतासे युक्त होकर भी आशौचपरायणःसूतक नामक अशुद्धिसे युक्त थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि वे पावनप्रक्रियः-पवन सम्बन्धी प्रक्रियासे सहित थे, अर्थात् पवनके समान विचरण-विहार करने वाले थे और शौच नामक धर्मसे सहित थे ॥३६।। ___ अर्थ-वह जयकुमार मनमें सत्यभामा पट्टरानीकी चेष्टासे अनुगत होकर भी श्यामता-श्रीकृष्णताको प्राप्त नहीं थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि सत्यधर्मके अनुगामी होकर मनमें मलिनताको प्राप्त नहीं थे। तथा संयमप्रभयान्वितः-यमकी समीचोन प्रभासे युक्त होकर भी यमावभीत-यमसे अभीत थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि संयम-इन्द्रियदमन और प्राणिरक्षणरूप संयमसे युक्त होकर भी यम-मृत्युसे अभीत-भय रहित थे ॥३७॥ ___ अर्थ-वे जयकुमार तपसि-संतापमें प्रणिधि-प्रणिधान-स्थितिको प्राप्त होकर भी असन्तप्तान्तरङ्ग:-संतप्त हृदयसे सहित नहीं थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि तपश्चर्या में लीन होकर भी-तपोधर्म से सहित होकर भी अन्तरङ्गमें सन्तापका अनुभव नहीं करते थे और त्यक्ताशेषपरिग्रह-समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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