SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 646
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२-१३ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२५१ तेनाभ्यतीतः सन्, अथ ऊनोवलतां रलयोरभेदावूनोदरता स्वल्पभोजनग्राहकतां श्रितः, निवृत्ता वृत्तिर्यस्मान् स निवृत्तिरेतादृशे पथि निष्ठा यस्येत्येवंभूतः सन्नपि वृत्तीनां संख्यानं तद्वानभूविति विरोधस्तस्मान्निवृत्तिपथे भुक्तिमार्गे वृत्तिरहिते निष्ठा यस्य स वृत्तिसंख्याननामकानुष्ठानवानभूत् ।।११॥ अनेकान्तप्रतिष्ठोऽपि चैकान्तस्थितिमभ्यगात् । अकायक्लेशसंभूतः कायक्लेशमपि श्रयन् ॥१२॥ अनेकान्तेत्यादि-अनेकान्त एकान्ते न भवतीति संकीर्णो देशः, तत्प्रतिष्ठः सन् एकान्ते निर्जने वेशे स्थितिमभ्यगाद् इति विरोध:, तस्मादनेकान्ते नाम स्याद्वादसिद्धान्ते प्रतिष्ठा यस्य स इत्यर्थः कार्यः। कायक्लेशं शरीरस्य कष्टं श्रयन्नपि कायक्लेशो न सम्भूतो न भवतीति विरोधस्तस्मात् अकाय नाम पापाय क्लेशसंभूतः कष्टकारक: अपहर्तासीद् इत्यर्थः । कायक्लेशनामकं तपश्च कृतवानित्यर्थः ॥१२॥ नीरसत्वमथावाञ्छत् समीनपरिणामवान् । नदीनाभावमापापि निरोक्तगुणाश्रयात् ॥१३॥ नीरसत्वमित्यादि-समिनामिष्टानिष्टपदार्थेषु तुल्यभावधारिणामिनः स्वामी तस्य परिणामतः स जयकुमारः नीरसत्वं सर्वत्रापि भोजनादिषु रसाभावस्तमेवावाञ्छत् । एवं निर्जरायां पूर्वबद्धकर्मक्षपणायामुक्तस्य गुणस्याश्रयत्वाद् दीनमावं नाप । तथा स मारवाराभ्यतीतः-कामदेवके आक्रमणसे रहित होनेपर ऊनोदल(र)ता-ऊनोदरअवमौदर्य तपको प्राप्त हुए थे), तथा वृत्तिरहित मार्गमें स्थित होकर भी वृत्तिसंख्यानसे युक्त हुए थे (परिहार पक्ष में निवृत्तिपथ-निवाणमार्ग-मोक्षमार्ग स्थित होकर भी वृत्तिसंख्यान नामक तपसे युक्त हुए थे) ॥११॥ ____अर्थ-जयकुमार मुनिराज अनेकान्तप्रतिष्ठ-जब बहुत स्थानमें स्थित होकर भी एकान्त स्थिति-एकान्त-निर्जन स्थानमें स्थितिको प्राप्त हुए थे (परिहार पक्षमें अनेकान्त नामक स्यावाद सिद्धान्तमें स्थित होकर भी एकान्त स्थितिविविक्त शय्यासन नामक तपको प्राप्त हुए थे तथा कायक्लेशसे रहित होकर भी कायक्लेशको प्राप्त हए थे (परिहार पक्षमें अकायक्लेशसम्भूतः-पापके परिहारके लिये होने वाले पञ्चाग्नि तप आदि क्लेशोंसे रहित होकर भी आतापनादि योगरूप कायक्लेश नामक तपका आश्रय लेते थे ॥१२॥ अर्थ-तदनन्तर इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव रखने वालोंमें प्रमुखसाधुओंके परिणामसे युक्त जयकुमार मुनि भोजनादिकमें नीरसत्व-रसपरित्यागकी वाञ्छा की, अर्थात् रसपरित्याग नामक तप धारण किया और निर्जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy