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जयोदय- महाकाव्यम्
[ १४-१५
मीनपरिणामतो मत्स्यरूपत्वान्नीरसद्भावं जलसद्भावमवाञ्छत् जलेन रहितो निर्जरस्तस्य गुणस्याश्रयात् नदीनभावं समुद्ररूपतां चापेति विरोधः ॥ १३ ॥ नानात्मवर्तनोऽप्यासीद् बहुलोहमयत्वतः ।
समुज्ज्वलगुणस्थान ग्रहोऽभूत् तन्तुवायवत् ॥ १४ ॥
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नानात्मेत्यादि - बहुलोहमयत्वतः अनल्पायासयुक्तत्वतः नानात्मवर्तनः अनेकरूपभाजनसहित आसीत्, स च बहुलोहमयत्वतः अनेकप्रकारोहापोहयुक्तत्वात् सोऽपि नानात्मवर्तन: । आत्मनि न वर्तत इति अनात्मवर्तनो नासीत्, आत्मनि बहुचिन्तावान् बभूवेत्यर्थः । स च समुज्ज्वलानां गुणानां शीलसंयमादीनां पक्षे सूत्राणां स्थानं गृह्णातीति स तन्तुवायवत् पटकारवद् अभूत् । गुणस्थानमिति मुमुक्षूणां संक्रमणपदानां संज्ञा जिनागमे ।। १४ ।।
राजसत्वमतीयाय सत्वरं जितभावनः । कञ्जातमधिकुर्वाणस्तमोपहतया स्थितः || १५ ।।
सत्तास्थित कर्मोंकी क्षपणाके गुणोंका आश्रय होनेके कारण उन्होंने दीनभावदीनताको प्राप्त नहीं किया, अर्थात् किसी रसकी प्राप्तिके लिये दीनताको प्रकट नहीं होने दिया ।
अर्थान्तर - मीन - मत्स्यरूप परिणामसे युक्त होनेके कारण उन्होंने नीरसत्त्व - जलके सद्भाव को इच्छा की तथा निर्जर - निर्जल - जलाभाव के कथित गुणोंका आश्रय होनेसे वे नदीनभाव - समुद्रत्वको प्राप्त हुए, अर्थात् जो जलाभावका इच्छुक है वह समुद्रभावको कैसे प्राप्त होगा ? यह विरोध है, परिहार पक्ष में निर्जराके गुणों का आश्रय होनेसे उन्होंने कभी दीनताको प्राप्त नहीं किया || १३||
अर्थ – वे जयकुमार मुनि बहुल - ऊहमय - अनेक प्रकारके ऊहापोह से सहित होकर भी अनात्मवर्तन - आत्माको छोड़ अन्य पदार्थोंमें प्रवृत्ति करनेवाले नहीं थे, अर्थात् अपना उपयोग आत्मामें अथवा बहु-लोहमय - अत्यधिक लोह धातुरूप होकर नानात्मवर्तन - अनेक प्रकारके भाजनोंसे सहित थे तथा तन्तुवाय - जुलाहाके समान अपना उज्ज्वल गुणस्थान- सूतके स्थानोंको ग्रहण करनेवाले थे ( पक्ष में निर्मल गुणस्थान - षष्ठ-सप्तम गुणस्थानको ग्रहण करनेवाले थे, अर्थात् प्रमत्तविरत और अप्रमत्त गुणस्थान में प्रवृत्ति करनेवाले थे ||१४||
भावार्थ - मोह और योगके निमित्तसे आत्माके परिणामोंमें जो तारतम्य होता है, उसे गुणस्थान कहते हैं । ये १४ होते हैं । छठवें गुणस्थानसे लेकर आगे सब गुणस्थान मुनियोंके ही होते हैं ||१४||
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