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१२३६ जयोदय-महाकाव्यम्
[४४-४६ स्वपाणिपात्रं पुनरल्पमात्रं स्थित्वात्तिकात्रं परतन्त्रसात्रम् । मुनेरथावस्तविजन्तुमात्रं क्व भोजनं भो जनरज्जनात्र ||४४॥ ____ स्वपाणिपात्रमित्यादि-भो जनरञ्जन ! जनानां स्नेहभाजन ! अथ पुनर्मुने जनं यद् भवति तत्त, स्वस्य पाणिः कर एव पात्रं यत्र तत्, तथाल्पमात्रं स्वल्प रूपं, तच्च स्थित्वैव वोद्भीभूयात्तिका भुक्तिस्तां त्रायते तत्, परतन्त्रं गृहस्थाधीनं सत्रमेव सात्रं सदादानं यत्र तत्, तथा न त्रस्तं बाधायुक्तं भवेत्, विजन्तुमात्रमपि यत्र तदत्र क्व सुलभं भवेदिति चिन्तनीयम् । अनुप्रासोऽलंकारः ॥४४॥ एतावती स्यादुदरेऽभिवृद्धिर्मष्टेऽशने सत्यशनेऽतिगृद्धिः। नक्तंदिवं व्यक्तमहो चरिष्णोर्भवत्यवज्ञाविषया विजिष्णोः ॥४५॥
एतावतीत्यादि-विशिष्टो जिष्णुरग्निर्यस्य तस्य गृहस्थलोकस्य नक्तंदिवं निरन्तरमेव व्यक्तं स्पष्टतया चरिष्णोर्भक्षयतः किल मष्टे मनोऽभिलषितेऽशने सति उदरे पुनरेतावती याऽभीष्टा साभिवृद्धिः स्यादित्येतद्रूपतयाऽशनेऽतिगृद्धिर्लोलुपता साऽवज्ञाविषया ज्ञानिभिरनादरणीयैव भवति ॥४५॥ स्फूर्तिस्त्वजग्धावुत भाति मूतिर्न ध्यानजूतिश्च सुगर्तपूर्तिः । सकृत्समश्नातु यथा न दातुः कष्टं निजस्यावनतिश्च जातु ॥४६॥
स्फूतिरित्यादि-ज्ञानवतो भोजनं कोगिति कथयति किल-तस्य स्फूतिरुत्कण्ठा
अर्थ-परन्तु हे जनरज्जन ! सबके स्नेहभाजन ! मुनिका जो भोजन होता है वह अपने हाथ रूपो पात्रमें होता है, अल्प होता है, खड़े होकर ग्रहण किया जाता है, परतन्त्र-गृहस्थके अधीन होता है, दानरूपमें प्राप्त होता है, बाधारहित होता है और जन्तुरहित होता है । इस तरह गृहस्थका भोजन कहाँ और मुनिका भोजन कहाँ ? दोनोंमें बड़ा अन्तर है ॥४४॥
अर्थ-जिसकी जठराग्नि विशिष्ट है तथा जो रात-दिन स्पष्ट रूपसे खाता रहता है, ऐसे गृहस्थको 'अभिलषित भोजनके होनेपर उदरमें इतनी वृद्धि होती है' इस भावनासे युक्त जो भोजनविषयक गृद्धता-लम्पटता है, वह अवज्ञाअनादरका विषय है।
भावार्थ:-रात-दिन तथा अत्यधिक मात्रामें खाकर पेट बढ़ाने वाले मनुष्यको लोग 'पेटू' कहकर अनादृत करते हैं ।।४५॥
अर्थ-ज्ञानी मनुष्यका भोजन कैसा होता है ! यह कहते हैं। ज्ञानी मनुष्य
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