________________
१२३४ जयोदय-महाकाव्यम्
[३९-४१ प्रकारैरुदारै रज्ज्येत तथा कि मौक्तिकमपि ? किन्तु नहीति काकूक्तिः ॥३८॥ सुदर्पणे स्वास्यसमर्पणेन स्वैरं समालम्ब्य समादरेण । बिभर्ति तैलाद्यलकेषु वस्तु शृङ्गारसौन्दर्यपरो नरस्तु ॥३९॥
सुदर्पण इत्यादि-शङ्गारश्च सौन्दयं च तयोः परोऽनुरक्तो यो नरो गृहस्थः स तु समादरेण किलादरभावेन स्वैरं यथेच्छं यथा स्यात्तथा समालम्ब्य करेण धृत्वा सुदर्पणं धृत्वा तस्मिन् स्वास्यस्य निजमुखस्य समर्पणेन प्रतिबिम्बावलोकनेन सहालकेषु केशेषु तैलादि वस्तु केशप्रसाधकं विति ॥३९।। क्षुरोनरोचिष्णुरवद्यजिष्णुरिरां तरिष्णुः सहजं चरिष्णुः । यूकादिर्काचरणं न मुञ्चेत् कचानचापल्ययुगेष लुम्चेत् ॥४०॥
क्षुरोनेत्यादि-एष मुनिस्तु पुनरवद्यजिष्णुः पापाचारं जेतुमर्ह इरां व्यसनभूमि च तरिष्णुरुत्तरीतु योग्यः सहजं चरिष्णुरनन्यवशाचरणकारी क्षुरेण कचापहारि शस्त्रेण चोनो रहितस्सन् रोचिष्णुः सुरुचिमान् । एवं च यूकादीनां जन्तूनां शूकरा दयाभावस्याचरणमपि न मुञ्चेत्त्यजेदतश्चापल्यं न युनक्तीत्यचापल्ययुग भवन् कचान् केशान् लुञ्चेदेव । 'शूकः स्यादनुकम्पायाम्' इति विश्वलोचने ॥४०॥ परः परागः प्रकृतः प्रयागः स्फुरन् शरीरे सहजोऽनुरागः। सौवर्ण्यमायात्वधुनेति मे हि संस्नाति मृत्स्नातिशयेन गेही ॥४१॥
कलाकारके विविध प्रकारोंसे रंग दी जाती है, उस प्रकार क्या मोतियोंसे निर्मित वस्तु भी रंगी जाती है, अर्थात् नहीं। ___भावार्थ-जिस प्रकार लाखके आभूषण पर रङ्ग किया जाता है, उस प्रकार मोतियोंके आभूषण पर नहीं। इसी प्रकार गृहस्थके शरीर पर विविध प्रकारको सजावट की जाती है, मुनिराजके शरीर पर नहीं ॥३८॥
अर्थ-शृङ्गार और सौन्दर्य में तत्पर रहने वाला मनुष्य आदरपूर्वक स्वेच्छानुसार दर्पण लेकर तथा दर्पणमें अपने मुखका प्रतिबिम्ब देखकर केशोंमें तैल आदि सजावटकी वस्तुको धारण करता है ॥३९।। ___ अर्थ-ऊपर गृहस्थकी बात कहीं, परन्तु जो क्षुरा (उस्तरा) से रहित होने पर भी सुशोभित हैं, पापाचारको जीतने वाले हैं, संकटकी भूमि नरकादिको पार करने वाले हैं, सहज-स्वाभाविक आचरणसे सहित हैं और चपलतासे युक्त नहीं हैं, ऐसे ये मुनिराज जुआं आदि जीवोंकी दयाका आचरण करते हैं तथा केशोंका लुञ्चन करते हैं ।।४०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org