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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ १००-१०१ सम्बोधयत्वित्यादिइ-तथा वेदस्य सम्पदेव स्वयं शब्द एव स्वस्यायं नहि सम्बोधयतु ममायमर्थ इति निवेदयतु । ततस्तदर्थवाचकानां विवाचां परस्परविरुद्ध भाषिणां मध्ये कश्चिदेव गुरुर्भद्य युक्त्यागमाभ्यां युक्तितश्चागमतश्च न विरुद्धः कोषः शब्दार्थो यस्या तस्य सम्बोधनं हे युक्त्यागमाभ्यामविरुद्ध कोष ! सोऽपि भवानेव यतोऽसि मुक्तदोषो दोषरहित इति ॥ ९९॥ १२१६ सेवन्तु देवन्तु परे परोक्षेऽप्यनन्यवित्का यदि वाऽऽदरोऽक्षे | स्वच्छासनैकाशनकानुयुक्ती हे देव देव्यावपि भुक्तिमुक्ती ॥ १०० ॥ सेवन्त्वत्यादि - हे देव ! यदि वा पुनर्येषामक्षे स्पर्शनादौ हृषीक एवादरस्ते परेऽपि लोका वैषयिकसुखाधीनाः स्वकीये परोक्षे प्रत्यक्षतारहितज्ञानेऽनन्यवित्कास्त्वदपरज्ञानरहिताः सन्तस्तत्तदेवनाम्ना देवं त्वामेव तु सेवन्तु समाराधयन्तु यतः किल भुक्तिश्च मुक्तिश्च भुक्तिमुक्ती त्रिवर्गापवर्गसम्पदे द्वे अपि देव्यौ त्वच्छासनमेव तव मतमेवेकमशनकं भोजनं तत्रानुयुक्तिरासक्तिर्ययोस्ते स्तः । लौकिकसम्पदपि लोकोत्तरसम्पदपि तव शासनादेव स्त इति ॥ १०० ॥ निधीयते येन च ते समाधिर्न व्याधिरेनं व्रजतीह नाधिः । चिकित्सको निर्विचिकित्सकोऽसि पापात्मनामप्युत हे सुतोषिन् ॥ १०१ ॥ निधीयत इत्यादि - हे सुतोषिन् ! भगवन् ! ते तव समाधिर्ध्यानं समादरो वा निधीयते स्वीक्रियते तमेनं जनं न तु व्याधिः शारीरिकरोगो व्रजति प्राप्नोति न चाधि अर्थ - एक बात यह भी है कि वेदके शब्द स्वयं अपने अर्थको नहीं बतलाते कि मेरा यह अर्थ है | अतः परस्पर विरुद्ध अर्थको प्रतिपादन करनेवालोंके मध्य कोई गुरु अवश्य होना चाहिये और युक्ति तथा आगमसे अविरुद्ध शब्दार्थोंसे सहित हे भगवन् ! वह गुरु आप ही हो सकते हैं, क्योंकि आप ही रागादि दोषोंसे रहित हैं ||१९|| अर्थ - हे देव ! जिनका स्पर्शनादि इन्द्रियोंमें आदर है, ऐसे अन्य लोग भी अपने परोक्ष ज्ञानमें आपसे अतिरिक्त अन्य देवोंको न जानते हुए आपकी ही सेवा करें, क्योंकि भुक्ति - सांसारिक सुख और मुक्ति - पारमार्थिक सुख रूप जो देवियाँ हैं, वे आपके ही शासनरूप भोजन में अनुरक्त हैं । भावार्थ--हे भगवन् ! आपकी आराधनासे भुक्ति और मुक्ति- दोनों प्राप्त होती हैं, अतः जो भुक्ति - सांसारिक सुख चाहते हैं उन्हें भी आपकी उपासना करनी चाहिये || १००|| अर्थ- हे सुतोषिन् ! हे भगवन् ! जिसके द्वारा आपका ध्यान ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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