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________________ १२१५ ९७-९९] षड्विंशः सर्गः १२१५ त्वमीश्वराहममकारवेशं संक्लेशदेशं जितवानशेषम् । प्रक्षीणदोषावरणोऽथ चिद्वान् समस्तमारात् स्फुटमेव विद्वान् ॥९॥ त्वमित्यादि हे ईश्वर ! भगवन् ! त्वं पुनरयाहंकारश्च ममकारश्चाहंममकारौ समासभावादेकस्य कारशब्दस्य लोपस्तयोर्यो वेशः सन्निवेशस्तं ततश्च जायमानं संक्लेशदेशं कष्टभावमप्यशेषं संपूर्ण जितवानसि, ततो दोषो रागाविभाव आवरणं चाज्ञानं च ते दोषावरणे प्रक्षीणे दोषावरणे यस्य स त्वं चिद्वानित्यनेन शुद्धज्ञानवान् भवन् आरादेककालमेव समस्तं पदार्थजातं स्फुटं प्रस्पष्टरूपं विद्वान् संज्ञातवान् ॥९७॥ यन्मीयते वस्त्वखिलप्रमाता भवेदमेयस्य तु को विधाता। श्रुत्याखिलार्थाधिगमोऽप्यशक्त्याऽवलोक्यते भव्युपनेत्रयुक्त्या ॥९८॥ यन्मीयत इत्यादि-यवस्ति वस्तु तन्मीयते मेयगुणाधारो भवति प्रमाणेगम्यतामुरीकरोति यतः किलामेयस्य प्रमेयताविरहितस्य तु पुनविधाता विधानकर्ता को भवेदतोऽखिलप्रमाता सर्वज्ञो भवेदेव । भुवीह श्रुत्या वेदद्वाराऽखिलानामर्थानामधिगमो भवत्येव न तु प्रत्यक्षत इति चेत् ? किलाशक्त्या नयनयोः शक्त्यभावे सत्युपनयनयुक्त्याऽवलोक्यते, यस्य शक्तिः स स्वयमवलोकयेदेवेत्यायातं भगवन् ! अस्मिन् विषये विशेष वर्णनं जैनन्यायशास्त्रे द्रष्टव्यम् ॥९८॥ सम्बोधयत्वत्र न सम्पदेव गुरुविवाचामिह कश्चिदेव । युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धकोष ! भवेद्भवानेव स मुक्तदोषः ॥१९॥ अर्थ-हे ईश्वर ! हे भगवन् ! आपने अहंकार और ममकारके सन्निवेश तथा संक्लेशके समस्त स्थानोंको जीत लिया है, साथ ही रागादि भावरूप दोष और ज्ञानावरणादिके क्षीण नष्ट हो जानेसे आप चिद्वान् शुद्धात्मरूप हैं तथा समस्त पदार्थोंको स्पष्ट रूपसे जानते हैं, अर्थात् आप वीतराग-सर्वज्ञ हैं ॥९७|| अर्थ-जो वस्तु प्रमेय है-प्रमेयत्व गुणका आधार है, वह अवश्य ही किसीके ज्ञानका विषय होती है, अमेय-अप्रमेयका ज्ञाता कौन हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । इससे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। यदि कहा जाय कि सर्वज्ञकी क्या आवश्यकता है ? श्रुति-वेदके द्वारा ही समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो जायेगा । इसका उत्तर यह है कि श्रुतिके द्वारा होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है। जिसको प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है वही श्रुतिका आलम्बन लेता है, जैसेकि जिसके नेत्रोंमें स्वयं की शक्ति नहीं है वही उपनयन-चश्माके द्वारा देखता है । जिसके शक्ति है "देखता है ॥९८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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