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________________ १२१४ जयोदय-महाकाव्यम् [९५-९६ ववतिः स उपादानविहीनवादी जनः प्रमादी मदोन्मत्त एव, न यथार्थवादी । यता किलारणिरपि रूपादिमान् पुद्गलोऽग्निरपि रूपादिमानिति पुद्गल एव पुद्गलाज्जायते, नास्त्यत्र किंचिदनिष्टम् ॥९४॥ शरोरमात्रानुभवात् सुनामिन् न व्यापक नाप्यणुकं भणामि | आत्मानमात्माङ्गनयास्तिकामी नखाच्छिखान्तं पुलकाभिरामी ॥९॥ शरीरमित्यादि-हे सुनामिन् ! भगवन् ! अहं यथा तव मते निविष्टमस्ति तथैव शरीरमात्रानुभवाखेतोरात्मानं व्यापकं न भणामि नाप्यणुकमत्यल्परूपं भणामि कथयामि, किन्तु यावच्छरीरव्यापिनमेव जानामि, यतः कामी नामात्मा जीवः सोऽनया स्त्रिया सह संपर्कमुपेत्य नखादारभ्य शिखन्न्तमेव हि पुलकाभिरामी रोमाञ्चितोऽस्ति. सम्भवति ।।९५।। अहन्तयास्मिन् वपुषोतियुक्तस्तथा ममत्वाविषयेषु रुक्तः । प्रदोषतोऽस्मात् समुपैति खेदमिहायमस्यास्ति न चात्मवेदः ॥९६।। अहन्तयेत्यादि-हे प्रभो ! अयं मादृशः संसारी जनोऽस्मिन् वपुषि शरीरेऽहन्तया किलेदमेवाहमिति बुद्धया तथा पुनर्विषयेषु स्पर्शनादीन्द्रियार्थेषु रुक्तोऽभिरुचितो ममत्वान्ममैते समुपभोग योग्या इति विचारादीतियुक्तोऽस्ति परवशोऽस्ति । अस्मादेव प्रदोषतोऽपराधा. विहायं खेदमुपैति प्राप्नोति तथा चास्य नास्त्यात्मनस्स्वरूपस्य वेदो ज्ञानमिति ॥९६॥ है, क्योंकि अरणि नामक लकड़ो रूपादिमान् होनेसे पुद्गल है और अग्नि भी पुद्गल है, अतः पुद्गलसे पुद्गलकी उत्पत्ति होनेमें कुछ विरोध नहीं है ।।९४।। अर्थ-हे भगवन् ! सम्पूर्ण शरीरमें ही अनुभव होनेसे मैं आत्माको न तो व्यापक कहता हूँ और न अणुमात्र कहता हूँ, क्योंकि कामी-कामेच्छासे सहित जीव स्त्रीके साथ संपर्क होने पर नखसे लेकर शिखा पर्यन्त रोमाञ्चित होता है। भावार्थ-कुछ लोगोंका कहना है कि आत्मा समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है और कुछ का कहना है कि अणुमात्र है, अलात चक्रके समान समस्त शरीरमें शीघ्रतासे घूमता रहता है। पर हे जिनेन्द्र ! आपका कहना है कि इस जीवको जितना छोटा या बड़ा शरीर प्राप्त होता है उसीमें व्याप्त होकर रहता है, क्योंकि कामो मनुष्य स्त्रोके संपर्कसे समस्त शरीरमें रोमाञ्चित होता हुआ विषय सुखका अनुभव करता है ।।९५।। ___ अर्थ-यह संसारी प्राणो इस शरीरमें आत्मबुद्धिसे तथा इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें रुचिपूर्वक ममत्व भावसे युक्त है। इसी अहंकार और ममकार रूप अपराधसे यह प्राणो संसारमें खेदको प्राप्त होता है। इसे आत्मज्ञान नहीं है ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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