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१२१० जयोदय-महाकाव्यम्
[८७-८८ भावैकतायामखिलानुवृत्तिर्भवेदभावेऽथ कुतः प्रवृत्तिः । यतः पटार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ ! तत्त्वं तदुभानुपाति ॥८७॥
भावैकताया इत्यादि-यदि भाव एव सर्वस्य सर्वथा सर्व देति वादः स्वीक्रियेत, तदा तस्यां भावकतायाम् अखिलानुवृत्तिर्भवेत् सर्वत्र प्रवृत्तिरेव स्यान्न निवृत्तिरिति, तथा थाभाव एव सर्वस्येति कथने पुनर्लोकस्य या प्रवृत्तिर्भवति सा कुतः स्यात् ? या दृश्यते हे नाथ ! पटस्य वस्त्रास्यार्थी जनो घटं न प्रयाति न स्वी करोति ततस्तत्वं वस्तु तदुभानुपाति सदसदात्मकमेवेति ॥८७॥ अंशीह तत्कः खलु यत्र दृष्टिः शेषः समन्तात् तदनन्य सृष्टिः । स आगतोऽसौ पुनरागतो वा परं तमन्वेति जनोऽत्र यद्वाक् ॥८॥ ___ अंशीहेत्यादि-अनेकधर्मात्मके वस्तुनि यत्र खलु जनस्य दृष्टिः स्यात् तत्कस्तन्मात्र एवेहांशी स्यात्, ततोऽन्यः शेषः सर्वोऽपि धर्मसमूहः स तदन्यसृष्टिस्ततोऽशितोऽनन्या.
अर्थ-यदि भावरूप ही पदार्थको माना जावे तो सबकी सब पदार्थोंमें प्रवृत्ति होनी चाहिये और सर्वथा अभावरूप ही पदार्थको माना जाय तो प्रवृत्ति किस कारण होगी? क्योंकि वस्त्रका इच्छुक मनुष्य घटको प्राप्त नहीं होता। इसलिये हे प्रभो ! पदार्थ भाव और अभाव दोनों रूप है।
भावार्थ-यदि अन्योन्यानुभावके माध्यमसे घटमें पटका अभाव न माना जाय तो पटके इच्छुक मनुष्यकी घटमें प्रवृत्ति होनी चाहिये, पर नहीं होती, इससे जान पड़ता है कि घटमें पट नहीं है और पटमें घट नहीं है । एक पर्यायका दूसरी पर्यायमें नहीं होना अन्योन्यानुभाव कहलाता है। एक द्रव्यका दूसरा द्रव्यरूप नहीं होना अत्यन्ताभाव कहलाता है। कार्योत्पत्तिके पूर्व पर्यायमें कार्यका अभाव होना प्रागभाव कहलाता है और वर्तमान पर्यायके नष्ट होनेको प्रध्वंसाभाव कहते हैं। उपर्युक्त चारों अभावोंको जिनागममें स्वीकृत किया गया है। इसलिये पदार्थ भाव-अभाव-दोनों रूप है ||८७||
अर्थ-इस जगत्में अंशी कौन है ? जिस पर दृष्टि होती है, वही अंशी है और सब ओर विद्यमान शेष पदार्थ अन्य रूप हैं। जैसे जनसमूहके आनेपर मनुष्यकी जिसपर दृष्टि-अपेक्षा होती है, उसके लिये कहता कि वह आ गया और यह फिर आ गया। इस प्रकार जिस जिसकी अपेक्षा करता है, वही अंशी हो जाता है, तद्रूप कहलाने लगता है और शेष अतद्रूप ।
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