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षड्विंशः सर्गः
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दारा इत्यादि-विवेको विचारोऽपि दारा इति पदस्य वाच्यमेकं चानेकचारादेव निसर्गभावेनैवेतितरामुपैति किल रूपस्य वेशं वेशं प्रति प्रतिरूपवेशं वस्तु समस्तु । अथ य एकशेषो नाम समासो निदिष्टः शाब्दिकैः, सोऽपि वा निश्चयेनोद्बोधनाय तस्य प्रस्पष्टीकरणायैवास्तु ॥८५॥ अद्वैतवादोऽपरिणामभूत् स्याददृष्टहृदृष्टविरोधकृत् स्यात् । किं यातु सेतुं च तदीयहेतुविरुद्धता द्वोपवतीभरे तु ॥८६॥ ____ अद्वैतवाद इत्यादि-यदि किलाद्वैतमेकवस्तु नान्यद् इति वादोऽद्वैतवादः स स्याच्चेत्सोऽप्यपरिणामभृत् स्यात् किल निर्हेतुकत्वात् । तत्र परिणामस्य को हेतुः स्यात् ? कोऽपि न स्यात् । तत एष वादोऽदृष्टहृद् दृष्टस्य नवीनजातस्य हृदवलोपकरः स्यादेवं स दृष्टस्य दृष्टिपथगतस्य समुत्पद्यमानस्य वैचित्र्यस्य विरोधकृत् स्यात् सम्भवेत् । यदि तस्य हेतुस्तदीयहेतुः स प्रकल्प्यते चेत् स पुनविरुद्धतव द्वीपवती नदी तस्या भरे प्रवाहे कि सेतु यातु ? किन्तु नैव यातु । य एव हेतुः प्रकल्प्येत स ततोऽन्य इति विरुद्धताकारकः स्यात् ॥८६॥
अर्थ- यह भी एक विचार आता है कि जिस प्रकार स्त्रो वाची ‘दार' शब्द एक स्त्रीके रहने पर भी 'दारा' इस प्रकार बहु संख्यामें प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार सत् भी एक होकर भी अनेकरूपताको प्राप्त होता है। वैयाकरणोंने जिस प्रकार 'रामश्च, रामश्च, रामश्चेति रामाः' इस द्वन्द्व समासमें अनेक राम शब्दोंको एक राम शब्दमें समाविष्ट कर अनेकमें एकत्वको प्रकट किया है, उसी प्रकार पर्यायगत अनेकरूपताको गौणकर द्रव्यमें भी आचार्योंने एकरूपता स्वीकृत की है। तात्पर्य यह है कि सत् एक भी है और अनेक भी है। द्रव्याथिक नय-सामान्यकी विवक्षामें द्रव्य एक है और पर्यायार्थिक नयविशेषकी विवक्षामें अनेक हैं ॥८५॥
अर्थ-यदि एक अद्वैतवादको ही स्वीकृत किया जावे तो वह परिणामपरिवर्तनसे रहित होगा। परिणामका कारण स्वीकृत किये बिना स्वयं परिणाम हो नहीं सकता और परिणामका कारण स्वीकृत किया जावे तो अद्वैतवाद समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार यह माना जाय कि संसारमें सब पदार्थ पहलेसे विद्यमान हैं, अदृष्ट वस्तु कुछ भी नहीं है तो यह मान्यता भी प्रत्यक्ष दिखने वाली विचित्रताका विरोध करनेवाली है, नित्य नयी-नयी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, इसका विरोध होगा। परिणाम नवीन विचित्र वस्तुओंकी उत्पत्ति का कारण माना जाय तो अद्वैतादि मान्यतामें विरुद्धता आती है । इस विरुद्धता रूप नदीके प्रवाहमें पुल क्या होगा ? विरुद्धताका परिहार कौन करेगा ।।८।।
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