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________________ १२०८ जयोदय-महाकाव्यम् [८४-८५ सम्मेलनमपि न भवति, किन्तु ते मते तयोर्दोपदीप्त्योरिव दीप एवं दीप्तिः, द्रोप्तिरेव च दोपः, केवलं लक्षगप्रयोजनादिना तु भेदः साध्यते, किन्तु सत्तया नानयो द इति तदात्मशक्तिस्तादात्म्यशक्तिस्तादात्म्यसम्बन्धो गुणगुणिनोरिति तेऽनुरक्तिः प्रतिपत्तिरस्ति ॥८३॥ न सत् सदैकं गुणसंग्रहत्वाद् घृतादयो मोदकमस्तु तत्त्वात् । अनक्यमेवास्य तथैतु किञ्चिदेकैकतोऽनैक्यमुपैति किञ्चित् ॥८४॥ न सदित्यादि-हे प्रभो ! तव मते सत् सर्वदा सर्वथा किलैकमेव न भवति, गुणानां संग्रहत्वात् । तद्यथा मोदकं घृतादय एव मोदकरूपेणैकं कथ्यते, किन्तु तत्त्वात्तद् घृतं च शर्करा च पिष्टं चैतेषां संग्रह एवेति । तथा चानक्यमपि सदा सर्वदा सर्वथा सत इति चिद् बुद्धिः किमेतु किन्तु नैतु, यतः किञ्चिवपि चानक्यमुपैति तदेकेकत एवोपैति नान्यथा ॥८४॥ वारा इवारात्पदवाच्यमेकमनेकमप्येतितरां विवेकः । समस्तु वस्तुप्रतिरूपवेशमुद्बोधनायास्त्वथवैकशेषः ॥८५।। किया जा सकता, तथापि अन्धपाषाण और सुवर्णमें अभेद नहीं माना जाता, क्योंकि दोनोंकी जातियाँ पृथक् पृथक् हैं, दोनोंके प्रदेश अलग-अलग हैं, साधनके अभावसे वे अलग अलग नहीं हो पाते । सत् और सत्तामें तादात्म्य सम्बन्ध है, इनमें प्रदेशभेद नहीं है, अतः दीपक और दीप्तिके समान इनमें तादात्म्य माना जाता है । तिल और तैलके समान इनमें पृथक् भाव नहीं होता ।।८३॥ __ अर्थ-सत् सर्वथा एक नहीं है, क्योंकि वह अनेक गुणोंका संग्रह रूप है। घृत, शक्कर और आटा आदिको मिलाकर लड्डू बनाया जाता है, अतः वह देखने में एक प्रतीत होता है। परजिन पदार्थों के संग्रहसे बना है। उनकी ओर दृष्टि देनेसे वह अनेकरूप हो जाता है। परन्तु जीवादि द्रव्यरूप सत् अनेक गुणोंके संग्रह रूप होनेसे लड्डकी तरह अनेकरूपताको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि घृत, शर्करा आदि पदार्थ अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिये हुए लड्डूमें संगृहीत होकर एकरूप दिखते हैं, इस प्रकार जीवादि द्रव्योंमें रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण अपनो अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि. द्रव्योंसे पृथक् थे । इसलिये सत्में जो अनेकत्व है वह उसमें अनेक गुणोंके साथ तादात्म्य होनेसे है, संग्रहरूम होनेसे नहीं। अनेक गुणोंका ओर दृष्टि देनेसे जीवादि सत् अनेक रूप जान पड़ते हैं, परन्तु उन सबमें प्रदेशभेद न होनेसे परमार्थसे एकरूपता है ।।८४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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