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षडविंशः सर्गः
संकृति: संकरनामदोष: संजायते, यतो ज्ञानं नाम गुणो व्यापकेनैकेन समवायसमवायेनात्मनि सम्बध्यते तेनैवाकाशेऽपि सम्बन्ध्यतामिति । शब्दश्च यथाकाशे तथात्मनि सम्बन्ध्यतामिति सर्वसंकरः । यद्वा ज्ञानमाकाशे शब्दश्चात्मनि सम्बन्ध्यतां को नियामको यज्ज्ञानमात्मन्येव सम्बन्ध्यतामित्यनवस्थितिर्नाम दोषोऽन्यथा तु पुनः पक्षस्य परिच्युतिः, प्रतिज्ञाहानिर्नाम दोषो यता ज्ञानात्मनोः सम्बन्धकः समवायो भिन्नः शब्दाकाशयोः सम्बन्धको भिन्न इति स्यात् ॥ ८२ ॥
सम्मेलनं नो तिलवत् प्रसक्तिर्नान्धाश्मवच्चैतदशक्यभक्तिः । सत्तावयोरस्ति तदात्मशक्तिस्तद्दोपदीप्त्योरिव तेऽनुरक्तिः ॥ ८३॥
१२०७.
सम्मेलनमित्यादि - सद् वस्तु आत्मादि तत्त्वं च तस्य भावो गुणो ज्ञानादितयास्तित्वं च, तिलं तैलच तयोः प्रसक्तिरिवापूर्वापि पृथग् भावरूपा प्रसक्तियंत्र तन्नो भवति, तथान्धाश्मवदशक्या कर्तुमयोग्या भक्तिविभागभावो ययोर्यत्रेति किलाशक्यभक्तिः
परन्तु उसके मत में गुणका गुणीके साथ समवायसम्बन्ध माना गया है । यतश्च समवाय एक है और व्यापक है, तब ज्ञानका सम्बन्ध आत्मा के ही साथ हो और शब्दका सम्बन्ध आकाशके ही साथ हो इसका नियामक कौन है ? नियामक के अभाव में ज्ञानका आकाशके साथ और शब्दका आत्माके साथ सम्बन्ध होनेसे संकर और अनवस्था नामका दोष आ जाता है । इनसे बचनेके लिये यदि आत्मा और ज्ञानका सम्बन्ध करानेवाला समवाय दूसरा है तथा शब्द और आकाशका सम्बन्ध करानेवाला समवाय दूसरा है, ऐसा माना जाय तो समवाय एक है तथा व्यापक है इस पक्षको मान्यताको हानि होतो है । फलतः गुण और गुणीमें प्रदेशभेद न होनेसे एकरूपता है, मात्र संज्ञा, संख्या तथा लक्षण आदिकी अपेक्षा भेद है । गुण गुणीरूप है और गुणी गुणरूप है, अतः इनमें तादात्म्य सम्बन्ध है । तादात्म्य सम्बन्ध में जिस द्रव्यका जो गुण है उसका उसीके साथ तादात्म्य होता है, अतः संकरादि दोषोंकी आपत्ति नहीं आती ॥८२॥
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अर्थ-सत् और सत्ता इनका सम्बन्ध न तो तिल और तेलके समान है और न अन्धपाषाण और सुपर्णके समान है, किन्तु दीपक और दीप्ति - प्रकाशके समान है । जिस प्रकार दीपक और दीप्तिका तादात्म्य सम्बन्ध है, उसी तरह सत् और सत्ताका तादात्म्य सम्बन्ध है ।
भावार्थ - यद्यपि तिल और तेलका सम्बन्ध एकरूप दिखायी देता है, तथापि तैल तिलसे अलग हो जाता है, अतः उन दोनोंमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसी तरह अन्धपाषाण में जो सुवर्ण है, उसे यद्यपि पृथक् नहीं:
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