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________________ “१२०६ जयोदय-महाकाव्यम् [८१-८२ तत्त्वमित्यादि-हे देव ! त्वदुक्तं तत्त्वं यद्यपि सदसत्स्वरूपं कथंचित् स्वचतुष्टयेन सद्रूपं परचतुष्टयेन चासद्रूपमिति, तथापि परमेव रूपं धत्तेऽनुकरोति । यथा हरिद्रा जम्भरसेन युक्ता सती हि द्राक् शीघ्रमेव सा कुङ्कुमतामुपैति स्वीकरोति, न तु हरिव्रारूपेण तिष्ठति न च जम्भरसात्मतामेति ॥८॥ अङ्गाङ्गिनो क्यमितो हरीतिनं भोः प्रभो भाति यथाप्रतीति । सत्या त्वदुक्तिः शतपत्रनीतिर्गुणेषु नष्टेषु परेऽपि होतिः ॥८१॥ अङ्गाङ्गिनोरित्यादि-भो प्रभो ! अङ्गं चाङ्गो चाङ्गाङ्गिनी तयोयोनॆक्यमेव पृथक्त्वमेवेहास्तीति रीतिः शब्दप्रयुक्तिर्यथाप्रतीति न भाति समुचिता न प्रतीयते, किन्तु त्वदुक्तिः पत्राणां शतं तदेवैको भूय शतपत्रं कमलमिति कथनरूपा सत्या सम्भवति, यतो गुणेषु नष्टेषु सत्सु परेऽपि गुणिन्यपीतिहि नियमेन भवतीति ॥८१॥ येषां मतेनाथ गुणः स्वधाम्ना सम्बध्यते वै समवायनाम्ना । तेषां तदैक्यात्किल संकृतिर्वाऽनवस्थितिः पक्षपरिच्युतिर्वा ॥८२॥ येषामित्यादि-अथ येषां मतेन गुणो ज्ञानादिः स स्वधाम्ना गुणिनाऽत्मना साद्धं समवायनाम्ना सम्बन्धन सम्बध्यते वै निश्चयेन, तेषां तस्य सम्बन्धस्यैक्यादेवत्वात्किल अर्थ-हे देव ! आपके द्वारा कहा हुआ तत्त्व यद्यपि सदसत्स्वरूप है-स्वचतुष्टयकी अपेक्षा सदूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा अमद्रूप है, तथापि वह एक तृतीय रूपको ही प्राप्त होता है। जैसे हलदी नीबूके रससे युक्त होती हुई शीघ्र ही केशररूप-लालरूप हो जाती है, न हलदीरूप रहती है और न नीबूके रसरूप ८०| ___अर्थ-हे प्रभो ! अङ्ग और अङ्गी-अवयव और अवयवीमें ऐक्य-अभेद नहीं है, पृथक्ता ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता, परन्तु आपका अभेद कथन शतपत्रके समान सत्य है, जैसे कि सौ पत्रों-कलिकाओंका समूह शतपत्र-कमल कहलाता है। यहाँ सौ पत्रों और कमलमें भेद नहीं है-अभेद है, क्योंकि एक-एक पत्रके पृथक् करने पर शतपत्र-कमल ही नष्ट हो जाता है। यही बात गुण और गुणीमें भी है। प्रदेशभेद न होनेसे गुण-गुणीमें अभेद है, क्योंकि गुणोंके नष्ट होने पर गुणी भी नष्ट हो जाता है ।।८१।।। ___ अर्थ-जिनके मतमें गुण गुणोके साथ समवाय सम्बन्धसे सम्बन्धको प्राप्त होता है, उनके मतमें समवायके एक होनेके कारण संकर, अनवस्थिति और 'प्रतिज्ञाहानिरूप दोष आते हैं। ___भावार्थ-वैशेषिक दर्शन गुणको गुणीसे भिन्न मानता है, जैसाकि आत्माका ज्ञान और आकाशका शब्द गुण क्रमशः आत्मा और आकाशसे भिन्न है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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