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७८-८० ] षड्विंशः सर्गः
१२०५ अभेदभेदात्मकमर्थमहंस्तवोदितं संकलयन् समहम् ।' शक्नोमि पत्नीसुतवन्न वक्तुं किलेह खड्गेन नभो विभक्तुम् ॥७८॥
अभेदेत्यादि-हे अर्हन् ! भगवन् ! अभेवश्च भेवश्चक्यमनैक्यंच तो द्वावात्मा स्वरूपं यस्य तमर्थतत्त्वंसमहं पूर्णतयोचितं संकलयन्ननुभवन्नपि किलेह वक्तुं न शक्नोमि पत्नीसुतवद् यथा पत्न्या एव सुतः स मातरं वा ब्रूयात् पत्नी वा तामिति तथैवात्रापि भिन्न वा वदेद्वस्तु अभिन्नं वा यतस्तद्वयात्मकमतः कथमपि वक्तुं न योग्यम् । यथा खड्गेन नभो विभक्तु न योग्यं तथा शब्देन वस्तुस्वरूपमपि पूर्णतया न वाच्यम् ॥७८।। द्वयात्मनोऽप्यस्ति जनो यदर्थी श्रीवस्तुनः सम्प्रति तत्समर्थो । वमेविधी यद्यपि वक्त्रमा विरेचने किन्तु तथैव गुह्यम् ॥७९॥
द्वयात्मन इत्यादि-द्वयात्मनोऽपि वस्तुनो जनो यदा यदर्थी भवति तदा तत्समर्थो तस्यैव धर्मस्य समर्थको भवति । यथा वविधौ वमनसमये वक्त्रं मुखमूह्यमुत्स्फाल्यमस्ति यद्यपि, किन्तु तथैव विरेचने मलोत्सर्गसमये गुह्यमङ्गमेव विस्फाल्यमिति सम्प्रति दृश्यते ।।१९।।
तत्त्वं त्वदुक्तं सदसत्स्वरूपं तथापि धत्ते परमेव रूपम् । युक्ताप्यहो जम्भरसेन हि बागुपैति सा कुङ्कुमतां हरिद्रा ॥८०॥
हे अर्हन् ! आपके द्वारा कथित भेदाभेदात्मक पदार्थको जब मैं पूर्णरूपसे ग्रहण करता हुआ कहना चाहता हूँ, तब पत्नीके पुत्रके समान कह नहीं सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि पुरुषको पत्नीको उसका पुत्र माता कहता है और पतिः पत्नी कहता है। उसे सर्वथा न मातारूप कहा जा सकता है और न पत्नीरूप, क्योंकि उसमें माता और पत्नीका व्यवहार पुत्र और पतिकी अपेक्षासे है, इसी तरह किसी वस्तुको भेद और अभेद दोनों रूप कहा जाता है। प्रदेशभेद न होनेके कारण वस्तु अपने गुणोंसे अभेदरूप है और संज्ञा, लक्षण आदिकी अपेक्षा भेद रूप है । दो रूप वस्तुको एकान्त रूपसे एक रूप कहना तलवारसे आकाशको खण्डित करनेके समान अशक्य है ।।७८।।
अर्थ-कोई पुरुष जब द्वयात्मक वस्तुको ग्रहण कर रहा है, तब वह जिसका इच्छुक होता है उस समय उसीका समर्थक होता है ।जैसे वमन करते समय मुखको विस्तृत किया जाता है और मलविसर्जन करते समय गुह्य स्थानको विस्तृत किया जाता है ॥७९।।
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