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१२०४ जयोदय-महाकाव्यम्
[७६-७७ आत्मनीनं स्वायत्तीकृतं विश्वस्य च वस्तुमात्रस्य च संजीवन जीवनाधारभूतं स्याद्वादं कथंचिदिति सिद्धान्तं भवान् किमुज्झेत् कथंकारं त्यजेविति धक्रोक्तिरलंकारः ॥७५।। अहो यदेवास्ति तदेव नास्ति तवाद्भुतेयं प्रतिभाति शास्तिः । यद्वा स्मरामोऽत्र तमी नरेभ्यो निशापि सा नास्ति निशाचरेभ्यः ॥७६॥ ___ अहो इत्यादि-अहो भगवन् ! यदेवास्ति तदेव नास्ति चेयं तवेयं शास्तिस्त्वनशासनवृत्तिरद्भुताऽभूतपूर्वा प्रतिभाति नानुभव मुपयाति । यद्वा स्मरामः स्मृति गच्छामो वयमत्र निशा रात्रिनरेभ्योऽस्मादृशेभ्यस्तमी महान्धकारपूर्णास्ति सापि निशाचरेभ्यो विडालादिभ्यस्तमी नेति भद्रमेतत् ॥७६।। तुलान्तवत्तद् द्वयमस्तु वस्तु प्रतिष्ठित विज्ञहृवीह वस्तुम् । न पश्चिमांशेन विना बिति समग्रभंशं खलु यास्ति भित्तिः ॥७७॥
तुलान्तवदित्यादि-तुलाया अन्तौ प्रान्तौ द्वौ तुलाप्रतिबद्धौ तथास्ति च नास्ति चेत्येतद् द्वयमपि विज्ञस्य हृदि चित्ते वस्तुं प्रतिभातुमिह वस्तु प्रतिष्ठितमेवास्ति खलु या भवति भित्तिः सा समग्रमंशं पुरोभागं पश्चिमांशेन तवपरभागेन विना न बिभर्तीति ॥७॥
भावार्थ-आप सांसारिक पदार्थोंका राग छोड़ देनेसे विराग हैं और सिद्धिस्वात्मोपलब्धिमें रत-लोन होनेसे सराग जान पड़ते हैं। इसलिये स्याद्वाद सिद्धान्तकी अपेक्षा आप विराग भी है तथा सराग भी हैं ॥७५॥
अर्थ-हे भगवन् ! जो है वही नहीं है, यह आपका उपदेश अद्भत-आश्चर्यकारी जान पड़ता है । अथवा हम जानते हैं कि रात्रि मनुष्योंके लिये तमीअन्धकार पूर्ण है, वही बिलाव आदि निशाचर जीवोंको अन्धकारपूर्ण नहीं है। ____ भावार्थ-स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु अस्तिरूप है और परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी अपेक्षा नास्तिरूप है ।।७६॥
अर्थ-जिस प्रकार तराजके दोनों प्रान्त परस्पर बद्ध होते हैं, अर्थात् एक प्रान्तमे तराजू नहीं बनती है। उसी प्रकार वस्तु भी अस्ति नास्ति-दोनों रूप होकर ही ज्ञानी मनुष्योंके हृदय में प्रतिभासित होनेके लिये प्रतिष्ठित है। अथवा जिस प्रकार जो दीवाल है वह अपने पिछले भागके बिना पूर्णताको धारण नहीं करतो, उसी प्रकार कोई भी वस्तु अपनेसे विरुद्ध धर्मके बिना पूर्णताको प्राप्त नहीं होनो। जो अस्ति रूप है वह नास्ति रूप भी है, जो नित्य है वह अनित्य भी है, जो एक है वह अनेक भी है जो तद् है वह अतद् भी है इत्यादि ।।७७॥
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