SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 598
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४-७५] षड्विंशः सर्गः १२०३ भवन्तीत्यादि-भो प्रभो ! ये विषयेषु लीना भोगाभिलाषिणो दोना बहुशोऽपि रागाश्च रुषश्च तासामधीना वशगा जना भवन्ति, ते त्वां वीतरागं पक्षपातविहीनमपि च वृथा लपन्ति जिनाद्देवात् कस्य कोऽर्थः सिद्धचतीति कथयन्ति, यथा चौराश्चन्द्रमसं शपन्तीति दृष्टान्तोऽलंकारः ॥७३॥ राजामिवाज्ञा भवतां जगन्ति गाविसंवादतया लसन्ती । शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वपार्थ मोहाय सम्मोहवतां धृतार्थम् ॥७४॥ राजामित्यादि-अविसंवादतया विच्छेदाभावतया लसन्ती भवतां श्रीमतामाज्ञा राज्ञां भूपानामिव सा जगन्ति गता सर्वथैवाऽखण्डतया वर्तते । अन्यस्य पुनरनहतस्तु वचः शिशोर्बालकस्येवापार्थमकल्याणकरं भवत्केवलं सम्मोहवतां संसारिणां मोहाय विभ्रमोत्पाबनायव धृतोऽर्थो हेतुभावो येन तबस्तु, न तु हितकरमिति । 'अर्थः प्रयोजने वित्ते हेत्वभिप्रायवस्तुषु' इति विश्वलोचने ॥४॥ विरागमेकान्ततया प्रतीमः सिद्धौ रतः किन्तु भवान् सुषीम ! । विश्वस्य संजीवनमात्मनीनं स्याद्वावमुज्मेत् किमहो अहीन ! ॥७॥ विरागमित्यादि-हे सुषीम ! सुशोभन ! वयं त्वद्भक्तास्त्वामेकान्ततया सर्वथा विरागं कुत्राप्यनुरागो नास्ति यस्येदृशं प्रतीमः प्रतीति, कुर्मः, किन्तु भवांस्तु सिद्धो नाम निर्वृतौ रतोऽनुलग्नोऽस्ति । अहो अहीन ! सर्वाङ्गसम्पन्न ! तदिदं सत्यमपि यतो भवत ___ अर्थ-हे प्रभो ! जो रागद्वेषके अधीन तथा विषयों में लोन दीन मनुष्य हैं, वे आप वीतरागको भी व्यर्थ कहते हैं, अर्थात् वीतराग देवसे किसीका कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, ऐसा कहते हैं। जैसे चोर चन्द्रमाकी निन्दा करते हैं, वैसे ही विषयाधीन मनुष्य वीतराग देवको निन्दा करते हैं ॥७३॥ अर्थ-अविरोध रूपसे शोभायमान आपकी आज्ञा राजाओंकी आज्ञाके समान समस्त जगतमें व्याप्त है, जबकि अन्य पुरुषोंकी आज्ञा बच्चोंके निरर्थक वचनके समान मोहो जीवोंके मोहके लिये ही हेतुभूत है ।।७४।। ___ अर्थ-हे अतिशय शोभायमान ! जिनेन्द्र ! हम आपके भक्त आपको यद्यपि सर्वथा विराग-रागरहित जानते हैं, पर आप सिद्धि-मुक्तिवधूमें लीन हैं-उसे प्राप्त करना चाहते हैं, अतः सर्वथा विराग-रागरहित किस प्रकार हुए ? हे अहीन ! हे सर्वगुणसंपन्न भगवन् ! आप क्या समस्त जगत्के हितकारी अपने स्याद्वाद सिद्धान्तको छोड़ सकते हैं ? अर्थात् नहीं छोड़ सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy