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________________ ८९-९०] षड्विंशः सर्गः १२११ सृष्टिर्यस्य स समन्तात् सर्वस्तदंशरूपतापन्नो भवेत् । यतोऽत्र जनो यद्वार यदपेक्षको भवति जनसमूहे समायाते स आगतो वा न वाऽसौ पुनरागत इति परं तमेवान्वेति ॥८॥ नित्यैकतायाः परिहारकोऽब्दः क्षणस्थितेस्तद्विनिवेदिशब्दः । सिद्धोऽधुनार्थः पुनरात्मभूप ! संज्ञानतो नित्यतदन्यरूपः ॥८९॥ नित्यैकताया इत्यादि हे आत्मभूप ! नित्यमेवेक नानित्यमिति विचारो नित्यकता तस्याः परिहारकः प्रतिवादकरोऽब्दो मेघ एव, योऽकस्मादुत्पद्यते पुनर्लयमप्येतीति । तथा तद्विनिवेविशव्वस्तदुत्थो गर्जनात्मक शब्द: सोऽप्यनेकक्षणस्थायित्वात् क्षणस्थितेः परिहारको भवति, यतो यत्रानेकक्षणस्थायित्वं तत्र पुनः सर्वदा स्थायित्वेन कोऽस्तु द्वेष इति किलाऽधुना संज्ञानतो यः पुरा बालः स एवाधुना युवायमिति प्रत्यभिज्ञानतो नित्यतवन्यरूपो नित्यानित्यात्मकोऽर्थः सिद्धोऽस्ति' ॥८९॥ काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति हलं तटस्थो रथकृत् करोति । कृष्टा सुखी सारथिरेव रौति न कस्त्रिधा तत्त्वमुरीकरोति ॥१०॥ काष्ठमित्यादि-यो रथकृत्तक्षकः काष्ठमादाय सदा तत् क्षिणोति तादृगाजीवनोऽस्ति स यदा तटस्थः सन् हलं करोति तदा कृष्टा कृषीवलः स तु स्वेच्छानुकूल भावार्थ-अनेक धर्मात्मक वस्तुमें जिस समय जिस धर्मकी विवक्षाकी जाती है, उस समय वह वस्तु तद्रूप हो जाती है और शेष वस्तु अतद्रूप ।।८८॥ अर्थ-हे आत्मभूप! नित्यैकताका परिहार करने वाला मेघ है और मेघसे उत्पन्न हुआ शब्द क्षणस्थिति-अनित्यैकताका प्रतिषेध करने वाला है। प्रत्यभिज्ञानसे नित्य और अनित्यकी सिद्धि होती है, अर्थात् जिसके विषयमें यह ज्ञान हो कि यह वही है जिसे पहले देखा था वह नित्य है और जिसके विषयमें 'यह वह नहीं है' इस प्रकारका बोध हो वह अनित्य है । मेघ अकस्मात् उत्पन्न होता है और अकस्मात् विलीन हो जाता है, इससे पदार्थकी अनित्यताका बोध होता है। और मेघसे उत्पन्न हुआ शब्द अनेक क्षण तक विद्यमान रहता है, इससे पदार्थ सर्वथा अनित्य नहीं है यह सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि पदार्थ नित्यानित्यात्मक है। द्रव्य दृष्टिसे नित्य है और पर्याय दृष्टिसे अनित्य ॥८९|| ___ अर्थ-कोई बढ़ई लकड़ी लेकर सदा छीलता है, छोलता हुआ यदि वह स्वेच्छासे हल बना देता है तो किसान सुखी हो जाता है और रथका इच्छुक १. नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेनं नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः। न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते ॥ आप्तमीमांसा ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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