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________________ ६९-७० ] षड्विंशः सर्गः वातेन हेतुना स हषं च रेभे समारब्धवान् । एवं पुण्यपाके परमशुभोदयेऽवतीर्णात्ततः सपदि तदानीं पुलकानां रोमाञ्चानां कुलकमेव शंसाऽभिषा येषां तेऽन्तरेनोदुरंशा अन्तर्गताः पापस्य शास्ते बहिरुदीर्णा उपर्यागता बभूवुरित्युत्प्रेक्षाऽलंकारः ॥ ६८ ॥ संसारसागरसुतीरवदादिवीर श्रीपादपादपपदं समवाप धीरः । तत्राऽऽनमंस्तु शरदुत्तरलाक्षिमत्वा न्मुक्ताफलानि ललितानि समाप सध्वात् ॥ ६९॥ संसारेत्यादि - धीरो जयकुमारः स संसार एवातलस्पर्शत्वात् सागरोऽब्धिस्तस्य सुतीरवत्तटवदाविवीरो भगवान् वृषभस्तस्य श्रीपादौ चरणावेव पादपो वृक्षः समाश्वासनवायकत्वात्तस्य पदं स्थानं समवाप लेभे । तत्र पुनरानमन्नमस्कारं कुवंस्तु स सत्वात् साविकभावस्य सद्भावात् झरती झरमनुकुर्वतों उत्तरले सुचपले ये अक्ष्णी लोचने तद्वत्त्वालालितानि मनोहराणि मुदश्रुरूपाणि मुक्ताफलानि समवापेति रूपकालंकारः ॥ ६९॥ प्रसन्नाक्षरपुष्पाणां मालाथालापशालिना । गुणवततादेर्नु महतामनुयायिना ॥ ७० ॥ Jain Education International १२०१ प्रसन्नेत्यादि - अथाऽऽलापशालिनानेन वाक्चतुरेण महतामनुयायिना महान्तो यथानुतिष्ठन्ति तथानुतिष्ठता तेन जयकुमारेणादेर्नुः श्रीनाभेयस्य गुणैः क्षमादिभिरेव इस हेतु उन्होंने बहुत भारी हर्ष प्राप्त किया और उस हर्षसे उनके शरीर में रोमाञ्च निकल आये । वे रोमाञ्च ऐसे जान पड़ते थे मानों शुभोदयपुण्योदय में अवतीर्ण होनेसे उनके भीतर जो पापके कुत्सित अंश थे, वे रोमाञ्चसमूह छलसे बाहर निकल आये हों ||६८ || अर्थ - धीरवीर जयकुमारने संसाररूपी सागर के उत्तम तटस्वरूप भगवान् वृषभदेव के चरणरूप वृक्षके स्थानको प्राप्त किया । वहाँ नमस्कार करते हुए उन्होंने सात्त्विक भावके कारण झरती हुई चञ्चल आँखोंसे युक्त हो मनोहर मोती प्राप्त किये। भावार्थ - भगवान् वृषभदेवके चरणोंका सान्निध्य पाकर उनके नेत्रोंसे हर्ष आँसू निकलने लगे । वे अश्रुकण मोतियोंके समान जान पड़ते थे ||६९|| अर्थ - तदनन्तर बात करनेमें चतुर तथा महापुरुषोंका अनुकरण करने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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