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१२०० जयोदय-महाकाव्यम्
[ ६७-६८ याप्यधिक तेजो गतः सम्प्राप्तोऽस्ति । भामण्डलं भामण्डलं न नाम, किन्तु स्वस्य सन्ताप कतां परिवर्त्य पूर्वापेक्षयाप्यधिकप्रकाशभृद्रविमण्डलमेवेदमिति भावोऽपह्नवश्वालंकार अहो वितर्कणे ॥६६॥
ध्वनिरयं निरयन् द्रुतमहतां रसमयं समयं तनुते सताम् । गतिरयं निरयस्तु पयोमुचः पृथगतोऽय गतोऽनुजनं रुचः ।।६७॥
ध्वनिरित्यादि-अर्हता तीर्थकृतां दिव्यो नाम ध्वनिनिरनिर्वाच्छन् सन् पयोमुचो मेघस्य गतिरयमवस्याविशेषं तिरयन्ननुकुर्वन् यथा वारि सर्वत्र सर्वेभ्यः समानतया वर्षति तथा ध्वनिरपीति यावत् । अतोऽथानुजनं प्राणिनं प्राणिनं प्रति पृथगेव रुचोऽभिरुचीर्गतः स सतां सज्जनानी रसमयं वर्षणतुल्यं समयं तनुते करोति । यथा वृष्ट वारि निम्बेक्षु काण्डादिषु पृथक् परिणमते, तथाईद्ध्वनिरपि ॥६७॥
समवसरणमेवं वीक्षमाणोऽथ देवं
गुणमणिमनुलेभे हर्षमेतेन रेभे । पुलककुलकशंसा अन्तरेनोदुरंशाः
___ सपदि बहिरुवोर्णा पुण्यपाकेऽवतीर्णात् ॥६॥ समवसरणमित्यादि-अथैवमुक्तरीत्या समवसरणं नाम सभास्थानं वीक्षमाणः सम्पश्यन् स जयकुमारस्तत्र गुणाः समतादयो मणयो यस्य तं देवं भगवन्तमप्यनुलेभे प्राप्त
भवोंका बोध होता है, वह भामण्डल नहीं था किन्तु अपनी संतापक वृत्तिको छोड़कर पूर्वकी अपेक्षा कोटिगुणित तेजको प्राप्त हुआ ज्ञानी सूर्य ही था ।।६६॥
अर्थ-अरहन्त परमेष्ठियोंकी निकलती हुई-प्रकट होती हुई दिव्य ध्वनि मेघकी अवस्थाविशेषका अनुकरण करती है और सत्पुरुषोंके समीप उनकी रुचिके अनुसार परिणमन करती हुई वृष्टितुल्य अवस्थाको विस्तृत करती है।
भावार्थ-जिस प्रकार मेघका जल एक सदृश बरसता है, परन्तु नीम तथा गन्ना आदिमें विविध रूपोंमें परिणत हो जाता है, उसी प्रकार अर्हन्तकी दिव्य ध्वनि एक समान प्रकट होती है, परन्तु श्रोताओंके कर्णकुहरोंमें उनकी भाषाके रूपमें परिणम जाती है तथा उनके मनोगत प्रश्नोंका समाधान करतो है ॥६७॥ __ अर्थ-इस प्रकार समवसरणको अच्छी तरह देखते हुए जयकुमार गुणरूपी मणियोंसे सहित भगवान् आदीश्वरको प्राप्त हुए, अर्थात् उनके समीप पहुँचे ।
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