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________________ ११९८ जयोदय-महाकाव्यम् [६२-६४ मनसेत्यादि-इन्दुश्चन्द्रः स जगत्पतेभियस्यार्चनमाराधनं मनसा वचसा कर्मणा चेति पूर्णरूपेण परिपूर्य कृत्वा शर्मणा सौभाग्येनाधुना क्षयजिद्राजयक्ष्मरोगतोऽपि मुक्तो भवन त्रिगुणं शरीरमाप्य समुपलभ्य जगत्पतेश्छत्रतया घूर्णते । अपह्नव एवालंकारः ॥६१॥ शमशोऽयमशोकपादपः हयतीतो जयति प्रमाणपः । भविना कविनामिनां चलन्निजशाखाशयचालनंदलम् ॥६२॥ शमश इत्यादि-अयमशोकपादपो योऽसौ प्रभोः पृष्ठलानः स शम एव शो धर्मो यस्य स चलन्त्यो या निजशाखास्ता एव शयचालनानि करविक्षेपणानि तैः कविनामिनां कविसदृशानां भविनां शरीरधारिणां दलं समूहमितो ह्वयति प्रमाणपो भवन् जयति । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६२॥ अनिला इव मागधाः सुराः परमामोदविधालसद्धराम् । सुमनासुरभिश्रियं तरां विनयन्ति त्रिपुरारिरागिराम् ॥६३॥ अनिला इत्यादि-त्रिपुराणां जन्मजरामरणाख्यानामरिराजो नाभेयस्य गिरां वाचं सुमनसः पुष्पस्य सुरभिश्रियं सुगन्धशोभामिव परमस्यामोदस्य प्रसन्नभावस्य या विधा प्रकारस्तया लसति धुरा मुखभागो यस्यास्तां किलानिला वायव इव मागधाः सुरा विनयन्तितरामित्युपमालंकारः ॥६३॥ जिनशासनमेव मूर्तिमद् वषचक्राह्वयतस्तरां लसत् । निवहन्ति सुरा दुरासदमितरेभ्योऽमितरेत इत्यदः ॥६४॥ अर्थ-समवसरणमें जिनेन्द्र भगवान्के मस्तकके ऊपर जो छत्रत्रय घूम रहा था पह छत्रत्रय नहीं था, किन्तु मन-वचन-कायसे पूजाको पूर्ण कर उसके फल स्वरूप क्षयरोगसे मुक्त हो तीन शरीर पाकर चन्द्रमा हो सुखसे झूम रहा था ।।६१॥ ___ अर्थ-शमशः-सुखरूप धर्मसहित अर्थात् दूसरे जीवोंको सुख उत्पन्न करने वाला प्रमाणपः-अत्यन्त ऊँचा अशोक वृक्ष अपनी हिलती हुई शाखारूप हाथोंके संचालनसे ऐसा जान पड़ता था, मानों कविनामधारी प्राणियोंको इस ओर बुला हो रहा हो ।।६२॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार वायु उत्कृष्ट सुगन्धसे युक्त अग्र भागवाली पुष्पोंकी. शोभाको विस्तृत करती है, उसी प्रकार मागध जातिके देव. उत्कृष्ट आनन्दको प्रदान करने वाली भगवान्की वाणीको विस्तृत कर रहे थे ॥६३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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