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५९-६१] षड्विंशः सर्गः
११९७ जिनसाज्जगतां तु दुर्जयी स हि मोहो महिमोहविस्मयो। नहि दुन्दुभिकः समस्ति तबृदयोद्भवरवस्तु वस्तुतः ।।५९॥
जिनसावित्यादि-जगतां तु अन्येषां प्राणिनां यो दुर्जयो जेतुमशक्यः स हि मोहो जगज्जेता जिनसाज्जिनस्याने महिम्नि विषये य ऊहो विचारस्तेन विस्मयो किलाश्चर्यचकित एवं तु पुनर्यो दुन्दुभिको नाम नायः स वस्तुतो न दुन्दुभिकः, किन्तु तस्य मोहस्य यद हृदयं वक्षस्तस्योद्भव आश्चर्येण वैषीभावस्तस्यैव रवः शब्द इत्यपह्नवोऽलंकारः ॥५९॥
नितरामितरायिता यतेरथ मासौ कथमासनायते ।
अपरायत ईशिताऽऽवृता क्व रहोनीतिरहो निरीहता ॥६०॥ नितरामित्यादि-अथ मा किल लक्ष्मीर्या किल नितरामत्यन्तमितरायिता एक त्यक्त्वाऽन्यं पुनस्तमपि त्यक्त्वा परमिति नवं नवमङ्गीकरोतीतरायिताऽथवोद्दण्डतां गता माऽसौ यतेरस्य वशिन आसनमिवाचरतीत्यासनायते समाधारो भवतीति कथं किन्तु न भवत्येव, यतः किलायमोशिता स्वामीहापरायते गन्धकुटीगतसिंहासनात् तत्रत्यकमलाज्वाधर एव तिष्ठति । अहोषव रहोनीति म रहस्यवृत्तिनिरीहताऽऽवृता स्वीकृतास्ति॥६०॥
मनसा वचसा च कर्मणाऽर्चनमिन्दुः परिपूर्य शर्मणा। त्रिगुणं वपुराप्य घूर्णते क्षयजिच्छत्रतया जगत्पतेः ॥६१॥
अर्थ-जो मोह जगत्के अन्य जीवोंके लिये दुर्जेय है, वह जिनेन्द्रदेवके आगे उनको महिमाविषयक विचारसे विस्मयमें पड़ गया। (उसे लगने लगा कि मैंने सबको जीता, अब इन्हें किस प्रकार जीतूं ?) समवसरणमें जो दुन्दुभिका शब्द हो रहा था वह दुन्दुभिका शब्द नहीं था, किन्तु वास्तवमें उसी मोहके हृदयके फटनेका शब्द था ||५||
अर्थ-जो लक्ष्मो अत्यन्त इतरायिता-एक-एकको छोड़ अन्य-अन्यको प्राप्त होती रहती है अथवा अत्यन्त उद्दण्ड है, वह यति-जिनेन्द्रका आसन-आधार कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। यही कारण है कि जिनेन्द्र समवसरणमें अधर-अन्तरीक्षमें विद्यमान रहते हैं, गन्धकुटीके सिंहासन अथवा कमलसे ऊपर रहते हैं, उस लक्ष्मीका स्पर्श भी नहीं होने देते। आश्चर्य है कि जिनेन्द्रके द्वारा
आवृत-स्वीकृत यह रहोनीति-रहस्यवादकी वृत्ति कहाँ और निरीहता-निःस्पृहता • कहाँ ? ॥६०॥
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