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जयोदय-महाकाव्यम्
[५७-५८ सद्भावेनान्विताः पक्षे स्वर्गगमनकारकत्वेनोचिताः परितापहराश्चेति किलोपमालंकारः ॥५६॥
क्रमशः श्रमशर्मतोऽर्हतां दशधभैरवकृत्य सन्धृताः । स्वच एव च सन्त्यमी ध्वजा दुरितानामुत्कम्पितं रुचा ॥५७॥ क्रमश इत्यादि-अर्हदुपाश्रये द्वितीयतृतीय वायोर्मध्ये हंसाविचिह्नवत्यो दशप्रकारा ध्वजा भवन्ति तासामिहोल्लेखः। श्रमः प्रयन्नकरणं तत्र शर्म शान्तिरनुद्रेकभावस्ततो हेतुतोऽहंतां श्रीमतां वशधर्मः समाविभिः क्रमश: क्रोधादीनां तत्प्रत्यनोकानां दशानां दुरितानां त्वचोऽवकृत्य सन्धृतास्ता एव ध्वजा इति नामतः प्रसिद्धा उतात एव तत्र रुजा पीडया कम्पितमित्यपह नुतिरलंकारः ॥५७॥
अविवादधराश्च राशयस्त्वनुगृह्णाति यकान् महाशयः । युगपच्च युगादिभास्करः स गतान्द्रावशतां सतां वरः ॥५८॥
अविवादधरा इत्यादि-तृतीयकोटतोऽप्यभ्यन्तर्वादश सभा भवन्ति ता उद्दिश्य कथनमिदम् । अतः पुनरविवादपरा विसंवादरहितास्तथाविर्मेषस्तस्य वादं धरन्ति ततः समारब्धा भवन्ति ते राशयः समूहा ज्योतिशास्त्रसम्मता वा यानेव यकान् द्वादशतां गतान् स सतां सज्जनानामुत नक्षत्राणां वरः श्रेष्ठो महाशयोऽसंकीर्णविचारो युगादिभास्कर आदीश्वरसूर्यो युगपदेव सोऽनुगृहाति । तुविशेषे प्रसिद्धः सूर्यः क्रमशो गृहातीति किलातिरेकोऽलंकारः ॥५८॥
हर-संसार भ्रमणजन्य संतापको हरने वाले हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी अपनी छायाके द्वारा धर्मजन्य संतापको हरने वाले थे।
भावार्य-समवसरणमें प्राकारोंके बीच आम तथा कल्पवृक्ष आदिके वन थे।॥५६॥ ____ अर्थ-समवसरणके द्वितीय और तृतीय कोटके बीच हंस आदिके चिह्नोंसे सहित जो दस प्रकारकी ध्वजाएँ थीं वे ध्वजाएँ नहीं थीं किन्तु जिनेन्द्रदेवके क्षमा आदि दश धर्मोंने अपने विरोधी क्रोध आदि पापों की जो चमड़ी प्रयत्नपूर्वक खींच ली थी वह थी, तथा वे चमड़ियाँ पीड़ासे कम्पित हो रही थीं ।।५७।। ____अर्थ-जो अविवादधरा-मेष आदि नामको धारण करनेवाली बारह राशियाँ हैं, उन्हें सत्-नक्षत्रोंका स्वामी सूर्य क्रमसे अनुगृहीत करता है परन्तु महाशय-उदार अभिप्रायसे सहित तथा सज्जनोंमें श्रेष्ठ आदीश्वर भगवान् उन बारह सभारूपी राशियोंको एक साथ अनुगृहीत कर रहे थे ॥५८॥
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