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षड्विंशः सर्गः
११९५ सुचिरमित्यादि-अद्यासौ कुम्भिनी पृथ्वी शुचिः पवित्राऽत एवास्यां मम स्थितिः सुचिरमधिककालमवलम्बिनी स्थायिनी नेति किलाकं पापं धूपस्य घटाः कुम्भास्तेषामास्यानि मुखानि तेभ्यो निर्गतो यो धूमस्तस्य च्छलत एवं निरन्तरमुच्चलन्निर्गच्छदस्ति । अपह नुतिरलंकारः ॥५४॥
प्रतिलासनिवासमाश्रवाम्बुधिमानन्दषियायमत्र वा।
करचारतयारमुत्तरत्यनुतारं नटदप्सरोभरः ॥५५॥ प्रतिलासनिवासमित्यावि-अत्र वाहंदुपाधये लासनिवासो नृत्यशाला लासनिवासं लासनिवासं प्रतिलासनिवासं नटन्तोनामप्सरसां यो भरो नृत्यकारिणीसमूहः स आनन्दषिया प्रसन्नबुद्धपाऽनुतारं रलयोरभेदात्तालानुसारं वावित्रलयानुकूलं करयोर्हस्तयोश्चारः प्रचारस्तत्तयाऽऽश्रवाम्बुधिं संसारसागरमेवारं शीघ्रमुत्तरत्ययम् ॥५५॥
सुमनोभिरुपासिता हिता मनुजेभ्यश्च फलोदयान्विताः । परितापहरा महोरुहाः परितः श्रीशगुणोपमावहाः ॥५६॥ सुमनोभिरित्यादि-अत्र पुनः परितस्तत्रोपाश्रये महीरुहा वृक्षा भवन्ति ते श्रीशस्य श्रीमतोऽहंतो यो गुणस्तस्योपमावहाः सन्ति, यतस्ते सुमनोभिः पुष्पः पक्षे देवरुपासिताः समाराषितास्तथा मनुजेभ्यः सर्वेभ्यो हिताः कल्याणकरा यतः फलोदयेनाम्रादि
अर्थ-अब पृथिवी पवित्र हो गई है, अतः इसमें हमारी स्थिति अधिक काल तक नहीं हो सकेगी, यह विचार कर ही धूपघटोंके मुखसे निकलने वाले धूमके छलसे पाप निकल कर ऊपरकी ओर भाग रहे थे ।।५।।
अर्थ-उस समवसरणकी प्रत्येक नाट्य-शालाओं में तालके अनुसार नृत्य करती हुई अप्सराओंका समूह हाथोंके संचालनसे ऐसा जान पड़ता था मानों बड़ी प्रसन्नतासे शीघ्र ही संसार-सागरको पार कर रहा हो ॥५५।।।
अर्थ-समवसरणमें जो चारों ओर वृक्ष थे, वे श्रीजिनेन्द्रदेवके गुणोंकी उपमाको धारण करते थे, क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके गुण सुमनस्-देवोंके द्वारा उपासित-समाराधित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी सुमनस-पुष्पोंसे सेवित-सहित थे, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके गुण मनुष्योंके लिये हित-कल्याणकारक हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी हित-कल्याणकारी थे, जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके गुण स्वर्गादि फलकी प्राप्तिसे सहित हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी आम्र आदि फलों उत्पत्तिसे सहित थे और जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके गुण परिताप
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